जो सुख ब्रज मैं एक घरी ।सो सुख तीनि लोक

जो सुख ब्रज मैं एक घरी ।सो सुख तीनि लोक






जो सुख ब्रज मैं एक घरी ।




सो सुख तीनि लोक मैं नाहीं ,

धनि यह घोष-पुरी ॥1||




अष्टसिद्धि नवनिधि कर जोरे, 

द्वारैं रहति खरी ||2||




सिव-सनकादि-सुकादि-अगोचर,

 ते अवतरे हरी ||3||




धन्य-धन्य बड़भागिनि जसुमति, 

निगमनि सही परी ||4||




ऐसैं सूरदास के प्रभु कौं, 

लीन्हौ अंक भरी ||5||








भावार्थ :--व्रज में जो आनन्द प्रत्येक घड़ी हो रहा है, वह आनन्द तीनों 
लोकों में नहीं है । यह गोप-नगरी धन्य है । आठों सिद्धियाँ और नवों निधियाँ
 द्वार पर यहाँ हाथ जोड़े खड़ी रहती हैं; क्योंकि शिव, सनकादि ऋषि
 तथा शुकदेवादि परमहंसों के लिये भी जिनका दर्शन दुर्लभ है, उन श्रीहरि ने यहाँ अवतार लिया है । 
परम सौभाग्यवती श्रीयशोदा जी धन्य हैं, धन्य हैं, यह आज वेद भी सत्य मानते हैं (इस पर उन्होंने हस्ताक्षर कर दिया है )क्योंकि सूरदास के ऐसे महिमामय प्रभु को उन्होंने गोद में ले लिया है ।


जय श्री राधे कृष्ण

 श्री कृष्णाय समर्पणम्



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