जब श्री राधा जी ने खोई अपनी मौलीसिरी
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श्री राधा जी अपनी सखियों के साथ जमुना-पुलिन विचरण विहार करके वापस घर लौट रही हैं,अति सहमी सहमी और उदास सी। इसका कारण है माता के रोष का भय, क्योंकि आज उन्होंने जमुना-पुलिन-वन में अपनी मोतीसिरी ( मोती और हीरो जड़ा गले का हार) खो दी है। जिनसे सारी सृष्टि भय खाती है वही अपनी माता के भय से सहम रही हैं।
घर में प्रवेश करते ही श्री राधा जी ने सर्वप्रथम अपनी माता को सत्य से अवगत तो कराया, किंतु तनिक बात को परिवर्तित करके-
"सुनि मैया कल्हिहिं,मोतीसिरी गवाँई
सखिनि मिलै जमुना तट गई,धौं उनहिं चुराई"
सखिनि मिलै जमुना तट गई,धौं उनहिं चुराई"
जब कोई और बहाना नहीं मिला तो सखि का ही नाम लगा दिया कि उसी ने ही चुरा ली होगी।
इसके साथ साथ माता को कुछ मनाने का भी प्रयत्न करती हैं-
"तब तैं मैं पछिताति हौं,कहति न डर तेरे"
और अपनी करुण व्यथा का भी वर्णन करती है कि इसी दुख में सारी रात सोई नहीं-
"पलक नहीं निसि कहुँ लगा,मोहि शपत तिहारी"
राधा जी के मुँह से इस तथ्य को सुन कर माता अवाक् चकित रह गई, कुछ क्षण के लिये मुँह से बोल ही नहीं फूटे, किंतु इसके उपरांत भी माता पुत्री का विश्वास नहीं कर पाता-
"सुनि राधा अब तोहि न पत्यैहौं"
साथ ही चेतावनी भी देती है-
"और हार चौकी हमेल अब,तेरे कंठ न नैहौ"
और माता पुत्री से कुछ कटु वचन भी कहती है-
"लाख टका की हानि करी तैं,सो जब तोसो लैहौ"
कितना मूल्यवान हार खो आई, लाख टके का नुक़सान कर दिया और पुत्री को धमकाती भी है कि शीघ्र ही हार ढूँढ कर लाये-
"हार बिना ल्याये लडबौरि,घर नहीं पैठन दैहौं"
राधा जी प्रात:काल शीघ्र ही अपनी सखियों के साथ मोतीसरी ढूँढने निकल पड़ती हैं और सीधी नंदगाँव श्री कृष्ण के घर पार्श्व भाग में पहुँचती हैं-
"मनौ अंब-दल मौर देखि के,कुहुकि कोकिलवाणी"
कोयल वाणी-स्वर कंठ से निकाल कर श्री कृष्ण को आने का संकेत देती हैं।
श्री कृष्ण उसी क्षण भोजन करने बैठे ही थे कि सहसा कानों में संकेत-स्वर सुनाई दिया-
"चले अकुलाई बन धाई,ब्याही गाई देखिहौं जाईं मन हरष कीन्हौं"
हृदय प्रफुल्लित हर्षमय है, किंतु माता के समक्ष अकुला कर बहाना बना कर कि मैया तुरंत ब्याही एक गैया मुझे पुकार रही है, जा रहा हूँ-और चले जाते हैं।
दोनों के मिलन से इन्द्रदेव भी हर्षित होते हैं। नन्हीं नन्हीं बूँदें वातावरण को सुरम्य बनाने लगती हैं। राधा जी के कुसुम्भी वस्त्र भीगने लगे,श्री कृष्ण ने अपना पीताम्बर उढा दिया है, दोनों उस पीताम्बर में अप्रतिम सौंदर्य की छटा बिखेर रहे है-
"सिव सनकादिक नारद-सारद,अंत न पावै तुंबर"
अनन्तकोटि ब्रह्माण्ड के स्वामी और उनकी प्राणवल्लभा जिनका कोई भी पार नहीं पा सकता,ग्वाल वालों के साथ पीताम्बर ओढ़ ओढ़ कर खेल रहे हैं।
काफ़ी समय व्यतीत हो जाने पर श्री कृष्ण ने राधा जी से अब घर लौट जाने के लिये कहा और स्वयं अपने विषय में भी बताया कि धौली गैया का बहाना बना कर भोजन पर से उठ कर आया हूँ। अवश्य ही मैया अभी तक बैठी राह तक रही होगी।
इसी वार्तालाप के मध्य राधा जी श्री कृष्ण के पीताम्बर से अपने आँचल की गाँठ जोड़ने के बहाने से,श्री कृष्ण के पीताम्बर-छोर में बंधी अपनी मोतिसरी खोल कर ले लेती हैं, इतनी चतुराई से कि सखी की दृष्टि तक नहीं पड़ी।
सखी तो अपने मन में यही सोचती रह गई कि श्री जी ने अपनी माता के समक्ष ललिता का झूठा नाम क्यों लिया, ललिता ने तो मोतीसरी चोरी की ही नहीं?
इधर माता कीर्ती पुत्री के अब तक घर वापस न लौटने पर अत्यधिक चिंतित है और बार बार स्वयं को दोष दे रही है कि मैंने बिटिया को इतना क्यों त्रासा-
"हार के त्रास में कुँवरि त्रासि बहुत,तिहि डरनि अजहुँ नाहि सदन आई"
माता बहुत अकुला रही है- कि कहाँ से ढूँढ कर लाऊँ अपनी बिटिया को?
तभी राधा जी घर पहुँचती हैं। माता के हृदय को हर्ष संतुष्टि व धीरज मिलता है। राधा जी मैया को उलाहना देती हुई मोतीसरी लौटातीं हैं-
"लै री मैया हार मोतीसरी,जा कारण मोहि त्रासी"
माता मन ही मन मुस्कुरा उठती है-
"यह मति रची कृष्ण मिलिवे की, परम पुनीत महतारी"
"प्रीत के बस्य के हैं कृष्ण मुरारी"
प्रभु तो भाव और प्रीत के भीखें हैं-
"जे सिव सनक-सनकादिक दुर्लभ, के बस किसे कुमारि"
अनंत कोटि ब्रह्माण्ड के स्वामी श्री राधा जी के सरल,निछ्चल, निःस्वार्थ प्रेम के आगे विवश हैं।
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