भक्त कबीर जी के शब्द - १ से २० तक

भक्त कबीर जी के शब्द - १ से २० तक

1. जननी जानत सुतु बडा होतु है
जननी जानत सुतु बडा होतु है इतना कु न जानै जि दिन दिन अवध घटतु है ॥
मोर मोर करि अधिक लाडु धरि पेखत ही जमराउ हसै ॥१॥
ऐसा तैं जगु भरमि लाइआ ॥
कैसे बूझै जब मोहिआ है माइआ ॥१॥ रहाउ ॥
कहत कबीर छोडि बिखिआ रस इतु संगति निहचउ मरणा ॥
रमईआ जपहु प्राणी अनत जीवण बाणी इन बिधि भव सागरु तरणा ॥२॥
जां तिसु भावै ता लागै भाउ ॥
भरमु भुलावा विचहु जाइ ॥
उपजै सहजु गिआन मति जागै ॥
गुर प्रसादि अंतरि लिव लागै ॥३॥
इतु संगति नाही मरणा ॥
हुकमु पछाणि ता खसमै मिलणा ॥१॥ रहाउ दूजा ॥91॥

2. नगन फिरत जौ पाईऐ जोगु
नगन फिरत जौ पाईऐ जोगु ॥
बन का मिरगु मुकति सभु होगु ॥१॥
किआ नागे किआ बाधे चाम ॥
जब नही चीनसि आतम राम ॥१॥ रहाउ ॥
मूड मुंडाए जौ सिधि पाई ॥
मुकती भेड न गईआ काई ॥२॥
बिंदु राखि जौ तरीऐ भाई ॥
खुसरै किउ न परम गति पाई ॥३॥
कहु कबीर सुनहु नर भाई ॥
राम नाम बिनु किनि गति पाई ॥४॥४॥324॥

3. किआ जपु किआ तपु किआ ब्रत पूजा
किआ जपु किआ तपु किआ ब्रत पूजा ॥
जा कै रिदै भाउ है दूजा ॥१॥
रे जन मनु माधउ सिउ लाईऐ ॥
चतुराई न चतुरभुजु पाईऐ ॥ रहाउ ॥
परहरु लोभु अरु लोकाचारु ॥
परहरु कामु क्रोधु अहंकारु ॥२॥
करम करत बधे अहमेव ॥
मिलि पाथर की करही सेव ॥३॥
कहु कबीर भगति करि पाइआ ॥
भोले भाइ मिले रघुराइआ ॥४॥६॥324॥

4. गरभ वास महि कुलु नही जाती
गरभ वास महि कुलु नही जाती ॥
ब्रहम बिंदु ते सभ उतपाती ॥१॥
कहु रे पंडित बामन कब के होए ॥
बामन कहि कहि जनमु मत खोए ॥१॥ रहाउ ॥
जौ तूं ब्राहमणु ब्रहमणी जाइआ ॥
तउ आन बाट काहे नही आइआ ॥२॥
तुम कत ब्राहमण हम कत सूद ॥
हम कत लोहू तुम कत दूध ॥३॥
कहु कबीर जो ब्रहमु बीचारै ॥
सो ब्राहमणु कहीअतु है हमारै ॥४॥७॥324॥

5. अवर मूए किआ सोगु करीजै
अवर मूए किआ सोगु करीजै ॥
तउ कीजै जउ आपन जीजै ॥१॥
मै न मरउ मरिबो संसारा ॥
अब मोहि मिलिओ है जीआवनहारा ॥१॥ रहाउ ॥
इआ देही परमल महकंदा ॥
ता सुख बिसरे परमानंदा ॥२॥
कूअटा एकु पंच पनिहारी ॥
टूटी लाजु भरै मति हारी ॥३॥
कहु कबीर इक बुधि बीचारी ॥
ना ओहु कूअटा ना पनिहारी ॥४॥१२॥325॥

6. जिह कुलि पूतु न गिआन बीचारी
जिह कुलि पूतु न गिआन बीचारी ॥
बिधवा कस न भई महतारी ॥१॥
जिह नर राम भगति नहि साधी ॥
जनमत कस न मुओ अपराधी ॥१॥ रहाउ ॥
मुचु मुचु गरभ गए कीन बचिआ ॥
बुडभुज रूप जीवे जग मझिआ ॥२॥
कहु कबीर जैसे सुंदर सरूप ॥
नाम बिना जैसे कुबज कुरूप ॥३॥२५॥328॥

7. जो जन लेहि खसम का नाउ
जो जन लेहि खसम का नाउ ॥
तिन कै सद बलिहारै जाउ ॥१॥
सो निरमलु निरमल हरि गुन गावै ॥
सो भाई मेरै मनि भावै ॥१॥ रहाउ ॥
जिह घट रामु रहिआ भरपूरि ॥
तिन की पग पंकज हम धूरि ॥२॥
जाति जुलाहा मति का धीरु ॥
सहजि सहजि गुण रमै कबीरु ॥३॥२६॥328॥

8. ओइ जु दीसहि अम्बरि तारे
ओइ जु दीसहि अम्बरि तारे ॥
किनि ओइ चीते चीतनहारे ॥१॥
कहु रे पंडित अम्बरु का सिउ लागा ॥
बूझै बूझनहारु सभागा ॥१॥ रहाउ ॥
सूरज चंदु करहि उजीआरा ॥
सभ महि पसरिआ ब्रहम पसारा ॥२॥
कहु कबीर जानैगा सोइ ॥
हिरदै रामु मुखि रामै होइ ॥३॥२९॥329॥

9. बेद की पुत्री सिम्रिति भाई
बेद की पुत्री सिम्रिति भाई ॥
सांकल जेवरी लै है आई ॥१॥
आपन नगरु आप ते बाधिआ ॥
मोह कै फाधि काल सरु सांधिआ ॥१॥ रहाउ ॥
कटी न कटै तूटि नह जाई ॥
सा सापनि होइ जग कउ खाई ॥२॥
हम देखत जिनि सभु जगु लूटिआ ॥
कहु कबीर मै राम कहि छूटिआ ॥३॥३०॥329॥

10. देइ मुहार लगामु पहिरावउ
देइ मुहार लगामु पहिरावउ ॥
सगल त जीनु गगन दउरावउ ॥१॥
अपनै बीचारि असवारी कीजै ॥
सहज कै पावड़ै पगु धरि लीजै ॥१॥ रहाउ ॥
चलु रे बैकुंठ तुझहि ले तारउ ॥
हिचहि त प्रेम कै चाबुक मारउ ॥२॥
कहत कबीर भले असवारा ॥
बेद कतेब ते रहहि निरारा ॥३॥३१॥329॥

11. आपे पावकु आपे पवना
आपे पावकु आपे पवना ॥
जारै खसमु त राखै कवना ॥१॥
राम जपत तनु जरि की न जाइ ॥
राम नाम चितु रहिआ समाइ ॥१॥ रहाउ ॥
का को जरै काहि होइ हानि ॥
नट वट खेलै सारिगपानि ॥२॥
कहु कबीर अखर दुइ भाखि ॥
होइगा खसमु त लेइगा राखि ॥३॥३३॥329॥


12. जिह सिरि रचि रचि बाधत पाग
जिह सिरि रचि रचि बाधत पाग ॥
सो सिरु चुंच सवारहि काग ॥१॥
इसु तन धन को किआ गरबईआ ॥
राम नामु काहे न द्रिड़्हीआ ॥१॥ रहाउ ॥
कहत कबीर सुनहु मन मेरे ॥
इही हवाल होहिगे तेरे ॥२॥३५॥330॥

13. रे जीअ निलज लाज तोहि नाही
रे जीअ निलज लाज तोहि नाही ॥
हरि तजि कत काहू के जांही ॥१॥ रहाउ ॥
जा को ठाकुरु ऊचा होई ॥
सो जनु पर घर जात न सोही ॥१॥
सो साहिबु रहिआ भरपूरि ॥
सदा संगि नाही हरि दूरि ॥२॥
कवला चरन सरन है जा के ॥
कहु जन का नाही घर ता के ॥३॥
सभु कोऊ कहै जासु की बाता ॥
सो सम्रथु निज पति है दाता ॥४॥
कहै कबीरु पूरन जग सोई ॥
जा के हिरदै अवरु न होई ॥५॥३८॥330॥

14. कउनु को पूतु पिता को का को
कउनु को पूतु पिता को का को ॥
कउनु मरै को देइ संतापो ॥१॥
हरि ठग जग कउ ठगउरी लाई ॥
हरि के बिओग कैसे जीअउ मेरी माई ॥१॥ रहाउ ॥
कउन को पुरखु कउन की नारी ॥
इआ तत लेहु सरीर बिचारी ॥२॥
कहि कबीर ठग सिउ मनु मानिआ ॥
गई ठगउरी ठगु पहिचानिआ ॥३॥३९॥330॥

15. जलि है सूतकु थलि है सूतकु सूतक ओपति होई
जलि है सूतकु थलि है सूतकु सूतक ओपति होई ॥
जनमे सूतकु मूए फुनि सूतकु सूतक परज बिगोई ॥१॥
कहु रे पंडीआ कउन पवीता ॥
ऐसा गिआनु जपहु मेरे मीता ॥१॥ रहाउ ॥
नैनहु सूतकु बैनहु सूतकु सूतकु स्रवनी होई ॥
ऊठत बैठत सूतकु लागै सूतकु परै रसोई ॥२॥
फासन की बिधि सभु कोऊ जानै छूटन की इकु कोई ॥
कहि कबीर रामु रिदै बिचारै सूतकु तिनै न होई ॥३॥४१॥331॥

16. झगरा एकु निबेरहु राम
झगरा एकु निबेरहु राम ॥
जउ तुम अपने जन सौ कामु ॥१॥ रहाउ ॥
इहु मनु बडा कि जा सउ मनु मानिआ ॥
रामु बडा कै रामहि जानिआ ॥१॥
ब्रहमा बडा कि जासु उपाइआ ॥
बेदु बडा कि जहां ते आइआ ॥२॥
कहि कबीर हउ भइआ उदासु ॥
तीरथु बडा कि हरि का दासु ॥३॥४२॥331॥

17. देखौ भाई ग्यान की आई आंधी
देखौ भाई ग्यान की आई आंधी ॥
सभै उडानी भ्रम की टाटी रहै न माइआ बांधी ॥१॥ रहाउ ॥
दुचिते की दुइ थूनि गिरानी मोह बलेडा टूटा ॥
तिसना छानि परी धर ऊपरि दुरमति भांडा फूटा ॥१॥
आंधी पाछे जो जलु बरखै तिहि तेरा जनु भीनां ॥
कहि कबीर मनि भइआ प्रगासा उदै भानु जब चीना ॥२॥४३॥331॥

18. हरि जसु सुनहि न हरि गुन गावहि
हरि जसु सुनहि न हरि गुन गावहि ॥
बातन ही असमानु गिरावहि ॥१॥
ऐसे लोगन सिउ किआ कहीऐ ॥
जो प्रभ कीए भगति ते बाहज तिन ते सदा डराने रहीऐ ॥१॥ रहाउ ॥
आपि न देहि चुरू भरि पानी ॥
तिह निंदहि जिह गंगा आनी ॥२॥
बैठत उठत कुटिलता चालहि ॥
आपु गए अउरन हू घालहि ॥३॥
छाडि कुचरचा आन न जानहि ॥
ब्रहमा हू को कहिओ न मानहि ॥४॥
आपु गए अउरन हू खोवहि ॥
आगि लगाइ मंदर मै सोवहि ॥५॥
अवरन हसत आप हहि कांने ॥
तिन कउ देखि कबीर लजाने ॥६॥१॥४४॥332॥

19. जीवत पितर न मानै कोऊ मूएं सिराध कराही
जीवत पितर न मानै कोऊ मूएं सिराध कराही ॥
पितर भी बपुरे कहु किउ पावहि कऊआ कूकर खाही ॥१॥
मो कउ कुसलु बतावहु कोई ॥
कुसलु कुसलु करते जगु बिनसै कुसलु भी कैसे होई ॥१॥ रहाउ ॥
माटी के करि देवी देवा तिसु आगै जीउ देही ॥
ऐसे पितर तुमारे कहीअहि आपन कहिआ न लेही ॥२॥
सरजीउ काटहि निरजीउ पूजहि अंत काल कउ भारी ॥
राम नाम की गति नही जानी भै डूबे संसारी ॥३॥
देवी देवा पूजहि डोलहि पारब्रहमु नही जाना ॥
कहत कबीर अकुलु नही चेतिआ बिखिआ सिउ लपटाना ॥४॥१॥४५॥332॥


20. राम जपउ जीअ ऐसे ऐसे
राम जपउ जीअ ऐसे ऐसे ॥
ध्रू प्रहिलाद जपिओ हरि जैसे ॥१॥
दीन दइआल भरोसे तेरे ॥
सभु परवारु चड़ाइआ बेड़े ॥१॥ रहाउ ॥
जा तिसु भावै ता हुकमु मनावै ॥
इस बेड़े कउ पारि लघावै ॥२॥
गुर परसादि ऐसी बुधि समानी ॥
चूकि गई फिरि आवन जानी ॥३॥
कहु कबीर भजु सारिगपानी ॥
उरवारि पारि सभ एको दानी ॥४॥२॥१०॥६१॥337॥

( Bhakt kabir ji ke shabad 1 se 20 tak )

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