महाराज युधिष्ठिर ने इंद्रप्रस्थ का राजपाट संभाल लिया था. कौरवों से मिले बंजर प्रदेश को पांडवों ने अपनी लगन से समृद्ध बना लिया था. महाराज युधिष्ठिर काफी दान देते थे. धीरे-धीरे उनकी प्रसिद्धि दानवीर राजा के रूप में होने लगी. पांडवों को इसका अभिमान हो गया.
भगवान श्रीकृष्ण पांडवों के सबसे बड़े हितैषी थे. उन्होंने भांप लिया कि पांडवों और यहां तक कि स्वयं धर्मराज युधिष्ठिर को दान का अभिमान होने लगा है. प्रभु को अपने भक्तों का अभिमान तो बिल्कुल पसंद नहीं. एक बार श्रीकृष्ण इंद्रप्रस्थ पहुंचे. भीम व अर्जुन ने युधिष्ठिर की दानशीलता की प्रशंसा शुरू कर दी. प्रभु ने उन्हें बीच में ही टोकते हुए कहा- निःसंदेह महाराज युधिष्ठिर बड़े दानी हैं लेकिन कर्ण जैसा दानवीर कोई दूसरा नहीं है. पांडवों को यह बात पसंद नहीं आई. भीम ने पूछ लिया- आप ऐसा कैसे कह सकते हैं? वह दान के नए किस्से सुनाकर युधिष्ठिर की श्रेष्ठता साबित करने लगे. श्रीकृष्ण सुनते रहे फिर बोले- यह निर्णय न मैं करूं और न आप सब. यह निर्णय समय पर छोड़ देते हैं. प्रभु ने लीला रची. बरसात के दिन थे. एक याचक युधिष्ठिर के पास आया और बोला- मैं बिना हवन किए अन्न ग्रहण नहीं करता. कई दिनों से मेरे पास हवन के लिए चंदन की लकड़ी नहीं है. आप मुझे लकड़ी दें, अन्यथा हवन पूरा नहीं होने से मैं भूखा-प्यासा मर जाऊंगा. युधिष्ठिर ने तुरंत सेवक को बुलवाया और चंदन की लकड़ी देने का आदेश दिया. संयोग से महल में सूखी लकड़ी नहीं थी. महाराज ने भीम व अर्जुन को बुलाया और ब्राह्मण के प्राणों की रक्षा के लिए चंदन की लकड़ी का प्रबंध करने का आदेश दिया.
काफी कोशिश के बाद भी वे दोनों चंदन की सूखी लकड़ी की व्यवस्था नहीं कर पाए. ब्राह्मण हताश हो रहे थे. भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- मैं एक स्थान ऐसा जानता हूं जहां आपके लिए चंदन की सूखी लकड़ी मिल सकती है. आप मेरे साथ वहां चलिए.
भगवान ने अर्जुन व भीम को भी साथ चलने का इशारा किया. वेश बदलकर वे भी ब्राह्मण के संग हो लिए. श्रीकृष्ण ब्राह्मण को लेकर कर्ण के महल पहुंचे. सभी ब्राह्मण वेश में थे इसलिए कर्ण ने उन्हें पहचाना नहीं. याचक ब्राह्मण ने अपनी लकड़ी की मांग दोहराई. कर्ण ने भी अपने भंडार के मुखिया को बुलवा कर सूखी लकड़ी देने के लिए कहा, पर वहां भी सूखी लकड़ी नहीं थी. ब्राह्मण निराश हो गया. अर्जुन-भीम भगवान की ओर देखने लगे. वे मंद-मंद मुस्कुरा रहे थे.
कर्ण ने कहा- आप निराश न हों. एक उपाय है मेरे पास. उसने महल के खिड़की-दरवाजों में लगी चंदन की लकड़ी काट कर ढेर लगा दी. फिर ब्राह्मण से कहा- आपको जितनी लकड़ी चाहिए ले लीजिए. कर्ण ने लकड़ी पहुंचाने के लिए एक सेवक भी साथ लगा दिया.
ब्राह्मण ने इस दान से खुश होकर कर्ण को आशीर्वाद दिया और लकड़ियां लेकर अपने घर की ओर चल पड़ा. पांडव व श्रीकृष्ण भी अपने महल लौट आए. कर्ण द्वारा ब्राह्मण की प्राण रक्षा के लिए गए दान के इस उपाय से सभी प्रभावित थे.
भगवान ने कहा- सामान्य परिस्थिति में दान देना कोई बड़ी बात नहीं है. असामान्य हालात में किसी के लिए सबकुछ त्याग देने के लिए तत्पर रहने का ही नाम दान है. अन्यथा चंदन की लकड़ी के खिड़की-द्वार तो आपके महल में भी थे पर आपको यह राह नहीं सूझी.
पांडव भगवान श्रीकृष्ण का तात्पर्य समझ चुके थे. फिर उन्होंने कभी महाराज युधिष्ठिर की दानशीलता की शेखी नहीं बघारी.
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