
सबसे ऊँची प्रेम सगाई।
दुर्योधन की मेवा त्यागी,
साग विदुर घर पाई॥1||
जूठे फल सबरी के खाये ,
बहुबिधि प्रेम लगाई॥2||
प्रेम के बस नृप सेवा कीनी,
आप बने हरि नाई॥3||
राजसुयज्ञ युधिष्ठिर कीनो,
तामैं जूठ उठाई॥4||
प्रेम के बस अर्जुन-रथ हाँक्यो ,
भूल गए ठकुराई॥5||
ऐसी प्रीत बढ़ी बृन्दाबन,
गोपिन नाच नचाई॥6||
सूर क्रूर इस लायक नाहीं ,
कहँ लगि करौं बड़ाई॥7||
''जय श्री राधे कृष्णा ''
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