धीरे धीरे मोड़ तू इस मन को

धीरे धीरे मोड़ तू इस मन को



धीरे धीरे मोड़ तू इस मन को
इस मन को इस मन को
मन मोड़ा फिर डर नहीं 
कोई दूर प्रभु का घर नहीं |




मन लोभी मन  कपटी मन है चोर
कहते आये ये पल पल में लोग
अभिमान क्यों नादान क्यों
गफलत ऐसे कर नहीं
कोई दूर प्रभु का घर नहीं ll1ll






जप तप तीरथ सब होते बेकार
जब तक मन में रहते भरे विकार
कुछ ज्ञान ले पहचान ले
होना है विचलित नहीं
कोई दूर प्रभु का घर नहीं ll2ll






जीत लिया मन फिर ईश्वर नहीं दूर
जान बूझ कर क्यों इंसा मजबूर
अभ्यास से वैराग से
कुछ भी दुष्कर नहीं
कोई दूर प्रभु का घर नहीं ll3ll



जय श्री राधे कृष्ण

श्री कृष्णाय समर्पणम्

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