
श्रीवल्लभ मेरे मनबसे हो,
ललना ओर न कछू सुहाय।।ध्रु।।
नवजोबन व्रजभामिनी,
नवसत साज सिंगार।।
प्रीतम सों खेलन चलीहो,
प्रेम मगन न संभार।।१।।
बहुविध साज संवारकें,
अंजनली ने संग।।
वसन विचित्र बनायकें,
पहरत पिय अंग।।२।।
चंदन वंदन अरगजा,
मुदित खिलावत फाग।।
अबीर गुलाल उडावत,
चहुंदिश छाय रह्यो अनुराग।।३।।
केसर तिलक बनायकें,
ओर कुसूमन के हार।।
आरती करे मन मोदसों,
लेत तंबोल उगार।।४।।
वदन कमल ढिंग शोभहीं,
केशसचिक्कन स्याम।।
चितवन चंचल नयनकु,
मोहत कोटिक काम।।५।।
वेणु मुरज डफ बांसुरी,
बाजत ताल मृदंग।।
सरस धमार हि गावहीं,
उपजत तान तरंग।।६।।
नखसिख लों छबि पिय की ,
कापें बरनीजाय।।
निरखत ही बन आवही,
नयनन रही समाय।।७।।
यह लीला अवलोकि के,
पल कलगे नहि चेन।।
शोभाश्री बल्लभराय की,
पीजिये भरभर नयन।।८।|
जै श्री राधे कृष्ण
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श्री कृष्णायसमर्पणं
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