101. प्रहलाद पठाए पड़न साल
प्रहलाद पठाए पड़न साल ॥
संगि सखा बहु लीए बाल ॥
मो कउ कहा पड़्हावसि आल जाल ॥
मेरी पटीआ लिखि देहु स्री गोपाल ॥१॥
नही छोडउ रे बाबा राम नाम ॥
मेरो अउर पड़्हन सिउ नही कामु ॥१॥ रहाउ ॥
संडै मरकै कहिओ जाइ ॥
प्रहलाद बुलाए बेगि धाइ ॥
तू राम कहन की छोडु बानि ॥
तुझु तुरतु छडाऊ मेरो कहिओ मानि ॥२॥
मो कउ कहा सतावहु बार बार ॥
प्रभि जल थल गिरि कीए पहार ॥
इकु रामु न छोडउ गुरहि गारि ॥
मो कउ घालि जारि भावै मारि डारि ॥३॥
काढि खड़गु कोपिओ रिसाइ ॥
तुझ राखनहारो मोहि बताइ ॥
प्रभ थ्मभ ते निकसे कै बिसथार ॥
हरनाखसु छेदिओ नख बिदार ॥४॥
ओइ परम पुरख देवाधि देव ॥
भगति हेति नरसिंघ भेव ॥
कहि कबीर को लखै न पार ॥
प्रहलाद उधारे अनिक बार ॥५॥४॥1194॥
102. माता जूठी पिता भी जूठा जूठे ही फल लागे
माता जूठी पिता भी जूठा जूठे ही फल लागे ॥
आवहि जूठे जाहि भी जूठे जूठे मरहि अभागे ॥१॥
कहु पंडित सूचा कवनु ठाउ ॥
जहां बैसि हउ भोजनु खाउ ॥१॥ रहाउ ॥
जिहबा जूठी बोलत जूठा करन नेत्र सभि जूठे ॥
इंद्री की जूठि उतरसि नाही ब्रहम अगनि के लूठे ॥२॥
अगनि भी जूठी पानी जूठा जूठी बैसि पकाइआ ॥
जूठी करछी परोसन लागा जूठे ही बैठि खाइआ ॥३॥
गोबरु जूठा चउका जूठा जूठी दीनी कारा ॥
कहि कबीर तेई नर सूचे साची परी बिचारा ॥४॥१॥७॥1195॥
103. कहा नर गरबसि थोरी बात
कहा नर गरबसि थोरी बात ॥
मन दस नाजु टका चारि गांठी ऐंडौ टेढौ जातु ॥१॥ रहाउ ॥
बहुतु प्रतापु गांउ सउ पाए दुइ लख टका बरात ॥
दिवस चारि की करहु साहिबी जैसे बन हर पात ॥१॥
ना कोऊ लै आइओ इहु धनु ना कोऊ लै जातु ॥
रावन हूं ते अधिक छत्रपति खिन महि गए बिलात ॥२॥
हरि के संत सदा थिरु पूजहु जो हरि नामु जपात ॥
जिन कउ क्रिपा करत है गोबिदु ते सतसंगि मिलात ॥३॥
मात पिता बनिता सुत स्मपति अंति न चलत संगात ॥
कहत कबीरु राम भजु बउरे जनमु अकारथ जात ॥४॥१॥1251॥
104. राजास्रम मिति नही जानी तेरी
राजास्रम मिति नही जानी तेरी ॥
तेरे संतन की हउ चेरी ॥१॥ रहाउ ॥
हसतो जाइ सु रोवतु आवै रोवतु जाइ सु हसै ॥
बसतो होइ होइ सो ऊजरु ऊजरु होइ सु बसै ॥१॥
जल ते थल करि थल ते कूआ कूप ते मेरु करावै ॥
धरती ते आकासि चढावै चढे अकासि गिरावै ॥२॥
भेखारी ते राजु करावै राजा ते भेखारी ॥
खल मूरख ते पंडितु करिबो पंडित ते मुगधारी ॥३॥
नारी ते जो पुरखु करावै पुरखन ते जो नारी ॥
कहु कबीर साधू को प्रीतमु तिसु मूरति बलिहारी ॥४॥२॥1252॥
105. हरि बिनु कउनु सहाई मन का
हरि बिनु कउनु सहाई मन का ॥
मात पिता भाई सुत बनिता हितु लागो सभ फन का ॥१॥ रहाउ ॥
आगे कउ किछु तुलहा बांधहु किआ भरवासा धन का ॥
कहा बिसासा इस भांडे का इतनकु लागै ठनका ॥१॥
सगल धरम पुंन फल पावहु धूरि बांछहु सभ जन का ॥
कहै कबीरु सुनहु रे संतहु इहु मनु उडन पंखेरू बन का ॥२॥१॥९॥1253॥
106. अलहु एकु मसीति बसतु है अवरु मुलखु किसु केरा
अलहु एकु मसीति बसतु है अवरु मुलखु किसु केरा ॥
हिंदू मूरति नाम निवासी दुह महि ततु न हेरा ॥१॥
अलह राम जीवउ तेरे नाई ॥
तू करि मिहरामति साई ॥१॥ रहाउ ॥
दखन देसि हरी का बासा पछिमि अलह मुकामा ॥
दिल महि खोजि दिलै दिलि खोजहु एही ठउर मुकामा ॥२॥
ब्रहमन गिआस करहि चउबीसा काजी मह रमजाना ॥
गिआरह मास पास कै राखे एकै माहि निधाना ॥३॥
कहा उडीसे मजनु कीआ किआ मसीति सिरु नांएं ॥
दिल महि कपटु निवाज गुजारै किआ हज काबै जांएं ॥४॥
एते अउरत मरदा साजे ए सभ रूप तुम्हारे ॥
कबीरु पूंगरा राम अलह का सभ गुर पीर हमारे ॥५॥
कहतु कबीरु सुनहु नर नरवै परहु एक की सरना ॥
केवल नामु जपहु रे प्रानी तब ही निहचै तरना ॥६॥२॥1349॥
107. अवलि अलह नूरु उपाइआ कुदरति के सभ बंदे
अवलि अलह नूरु उपाइआ कुदरति के सभ बंदे ॥
एक नूर ते सभु जगु उपजिआ कउन भले को मंदे ॥१॥
लोगा भरमि न भूलहु भाई ॥
खालिकु खलक खलक महि खालिकु पूरि रहिओ स्रब ठांई ॥१॥ रहाउ ॥
माटी एक अनेक भांति करि साजी साजनहारै ॥
ना कछु पोच माटी के भांडे ना कछु पोच कु्मभारै ॥२॥
सभ महि सचा एको सोई तिस का कीआ सभु कछु होई ॥
हुकमु पछानै सु एको जानै बंदा कहीऐ सोई ॥३॥
अलहु अलखु न जाई लखिआ गुरि गुड़ु दीना मीठा ॥
कहि कबीर मेरी संका नासी सरब निरंजनु डीठा ॥४॥३॥1349॥
108. बेद कतेब कहहु मत झूठे झूठा जो न बिचारै
बेद कतेब कहहु मत झूठे झूठा जो न बिचारै ॥
जउ सभ महि एकु खुदाइ कहत हउ तउ किउ मुरगी मारै ॥१॥
मुलां कहहु निआउ खुदाई ॥
तेरे मन का भरमु न जाई ॥१॥ रहाउ ॥
पकरि जीउ आनिआ देह बिनासी माटी कउ बिसमिलि कीआ ॥
जोति सरूप अनाहत लागी कहु हलालु किआ कीआ ॥२॥
किआ उजू पाकु कीआ मुहु धोइआ किआ मसीति सिरु लाइआ ॥
जउ दिल महि कपटु निवाज गुजारहु किआ हज काबै जाइआ ॥३॥
तूं नापाकु पाकु नही सूझिआ तिस का मरमु न जानिआ ॥
कहि कबीर भिसति ते चूका दोजक सिउ मनु मानिआ ॥४॥४॥1350॥
109. सुंन संधिआ तेरी देव देवाकर अधपति आदि समाई
सुंन संधिआ तेरी देव देवाकर अधपति आदि समाई ॥
सिध समाधि अंतु नही पाइआ लागि रहे सरनाई ॥१॥
लेहु आरती हो पुरख निरंजन सतिगुर पूजहु भाई ॥
ठाढा ब्रहमा निगम बीचारै अलखु न लखिआ जाई ॥१॥ रहाउ ॥
ततु तेलु नामु कीआ बाती दीपकु देह उज्यारा ॥
जोति लाइ जगदीस जगाइआ बूझै बूझनहारा ॥२॥
पंचे सबद अनाहद बाजे संगे सारिंगपानी ॥
कबीर दास तेरी आरती कीनी निरंकार निरबानी ॥३॥५॥1350॥
110. कोऊ हरि समानि नही राजा ॥
कोऊ हरि समानि नही राजा ॥
ए भूपति सभ दिवस चारि के झूठे करत दिवाजा ॥१॥ रहाउ ॥
तेरो जनु होइ सोइ कत डोलै तीनि भवन पर छाजा ॥
हाथु पसारि सकै को जन कउ बोलि सकै न अंदाजा ॥१॥
चेति अचेत मूड़ मन मेरे बाजे अनहद बाजा ॥
कहि कबीर संसा भ्रमु चूको ध्रू प्रहिलाद निवाजा ॥२॥५॥856॥
111. राखि लेहु हम ते बिगरी
राखि लेहु हम ते बिगरी ॥
सीलु धरमु जपु भगति न कीनी हउ अभिमान टेढ पगरी ॥१॥ रहाउ ॥
अमर जानि संची इह काइआ इह मिथिआ काची गगरी ॥
जिनहि निवाजि साजि हम कीए तिसहि बिसारि अवर लगरी ॥१॥
संधिक तोहि साध नही कहीअउ सरनि परे तुमरी पगरी ॥
कहि कबीर इह बिनती सुनीअहु मत घालहु जम की खबरी ॥२॥६॥856॥
112. दरमादे ठाढे दरबारि
दरमादे ठाढे दरबारि ॥
तुझ बिनु सुरति करै को मेरी दरसनु दीजै खोल्हि किवार ॥१॥ रहाउ ॥
तुम धन धनी उदार तिआगी स्रवनन्ह सुनीअतु सुजसु तुम्हार ॥
मागउ काहि रंक सभ देखउ तुम्ह ही ते मेरो निसतारु ॥१॥
जैदेउ नामा बिप सुदामा तिन कउ क्रिपा भई है अपार ॥
कहि कबीर तुम सम्रथ दाते चारि पदारथ देत न बार ॥२॥७॥856॥
113. डंडा मुंद्रा खिंथा आधारी
डंडा मुंद्रा खिंथा आधारी ॥
भ्रम कै भाइ भवै भेखधारी ॥१॥
आसनु पवन दूरि करि बवरे ॥
छोडि कपटु नित हरि भजु बवरे ॥१॥ रहाउ ॥
जिह तू जाचहि सो त्रिभवन भोगी ॥
कहि कबीर केसौ जगि जोगी ॥२॥८॥856॥
114. इन्हि माइआ जगदीस गुसाई तुम्हरे चरन बिसारे
इन्हि माइआ जगदीस गुसाई तुम्हरे चरन बिसारे ॥
किंचत प्रीति न उपजै जन कउ जन कहा करहि बेचारे ॥१॥ रहाउ ॥
ध्रिगु तनु ध्रिगु धनु ध्रिगु इह माइआ ध्रिगु ध्रिगु मति बुधि फंनी ॥
इस माइआ कउ द्रिड़ु करि राखहु बांधे आप बचंनी ॥१॥
किआ खेती किआ लेवा देई परपंच झूठु गुमाना ॥
कहि कबीर ते अंति बिगूते आइआ कालु निदाना ॥२॥९॥857॥
115. सरीर सरोवर भीतरे आछै कमल अनूप
सरीर सरोवर भीतरे आछै कमल अनूप ॥
परम जोति पुरखोतमो जा कै रेख न रूप ॥१॥
रे मन हरि भजु भ्रमु तजहु जगजीवन राम ॥१॥ रहाउ ॥
आवत कछू न दीसई नह दीसै जात ॥
जह उपजै बिनसै तही जैसे पुरिवन पात ॥२॥
मिथिआ करि माइआ तजी सुख सहज बीचारि ॥
कहि कबीर सेवा करहु मन मंझि मुरारि ॥३॥१०॥857॥
116. जनम मरन का भ्रमु गइआ गोबिद लिव लागी
जनम मरन का भ्रमु गइआ गोबिद लिव लागी ॥
जीवत सुंनि समानिआ गुर साखी जागी ॥१॥ रहाउ ॥
कासी ते धुनि ऊपजै धुनि कासी जाई ॥
कासी फूटी पंडिता धुनि कहां समाई ॥१॥
त्रिकुटी संधि मै पेखिआ घट हू घट जागी ॥
ऐसी बुधि समाचरी घट माहि तिआगी ॥२॥
आपु आप ते जानिआ तेज तेजु समाना ॥
कहु कबीर अब जानिआ गोबिद मनु माना ॥३॥११॥857॥
117. चरन कमल जा कै रिदै बसहि सो जनु किउ डोलै देव
चरन कमल जा कै रिदै बसहि सो जनु किउ डोलै देव ॥
मानौ सभ सुख नउ निधि ता कै सहजि सहजि जसु बोलै देव ॥ रहाउ ॥
तब इह मति जउ सभ महि पेखै कुटिल गांठि जब खोलै देव ॥
बारं बार माइआ ते अटकै लै नरजा मनु तोलै देव ॥१॥
जह उहु जाइ तही सुखु पावै माइआ तासु न झोलै देव ॥
कहि कबीर मेरा मनु मानिआ राम प्रीति कीओ लै देव ॥२॥१२॥857॥
118. आकासि गगनु पातालि गगनु है चहु दिसि गगनु रहाइले
आकासि गगनु पातालि गगनु है चहु दिसि गगनु रहाइले ॥
आनद मूलु सदा पुरखोतमु घटु बिनसै गगनु न जाइले ॥१॥
मोहि बैरागु भइओ ॥
इहु जीउ आइ कहा गइओ ॥१॥ रहाउ ॥
पंच ततु मिलि काइआ कीन्ही ततु कहा ते कीनु रे ॥
करम बध तुम जीउ कहत हौ करमहि किनि जीउ दीनु रे ॥२॥
हरि महि तनु है तन महि हरि है सरब निरंतरि सोइ रे ॥
कहि कबीर राम नामु न छोडउ सहजे होइ सु होइ रे ॥३॥३॥870॥
119. खसमु मरै तउ नारि न रोवै
खसमु मरै तउ नारि न रोवै ॥
उसु रखवारा अउरो होवै ॥
रखवारे का होइ बिनास ॥
आगै नरकु ईहा भोग बिलास ॥१॥
एक सुहागनि जगत पिआरी ॥
सगले जीअ जंत की नारी ॥१॥ रहाउ ॥
सोहागनि गलि सोहै हारु ॥
संत कउ बिखु बिगसै संसारु ॥
करि सीगारु बहै पखिआरी ॥
संत की ठिठकी फिरै बिचारी ॥२॥
संत भागि ओह पाछै परै ॥
गुर परसादी मारहु डरै ॥
साकत की ओह पिंड पराइणि ॥
हम कउ द्रिसटि परै त्रखि डाइणि ॥३॥
हम तिस का बहु जानिआ भेउ ॥
जब हूए क्रिपाल मिले गुरदेउ ॥
कहु कबीर अब बाहरि परी ॥
संसारै कै अंचलि लरी ॥४॥४॥७॥871॥
120. ग्रिहि सोभा जा कै रे नाहि
ग्रिहि सोभा जा कै रे नाहि ॥
आवत पहीआ खूधे जाहि ॥
वा कै अंतरि नही संतोखु ॥
बिनु सोहागनि लागै दोखु ॥१॥
धनु सोहागनि महा पवीत ॥
तपे तपीसर डोलै चीत ॥१॥ रहाउ ॥
सोहागनि किरपन की पूती ॥
सेवक तजि जगत सिउ सूती ॥
साधू कै ठाढी दरबारि ॥
सरनि तेरी मो कउ निसतारि ॥२॥
सोहागनि है अति सुंदरी ॥
पग नेवर छनक छनहरी ॥
जउ लगु प्रान तऊ लगु संगे ॥
नाहि त चली बेगि उठि नंगे ॥३॥
सोहागनि भवन त्रै लीआ ॥
दस अठ पुराण तीरथ रस कीआ ॥
ब्रहमा बिसनु महेसर बेधे ॥
बडे भूपति राजे है छेधे ॥४॥
सोहागनि उरवारि न पारि ॥
पांच नारद कै संगि बिधवारि ॥
पांच नारद के मिटवे फूटे ॥
कहु कबीर गुर किरपा छूटे ॥५॥५॥८॥872॥
Bhakt kabir ji ke shabad 101 se 120 tak
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