121. जैसे मंदर महि बलहर ना ठाहरै
जैसे मंदर महि बलहर ना ठाहरै ॥
नाम बिना कैसे पारि उतरै ॥
कु्मभ बिना जलु ना टीकावै ॥
साधू बिनु ऐसे अबगतु जावै ॥१॥
जारउ तिसै जु रामु न चेतै ॥
तन मन रमत रहै महि खेतै ॥१॥ रहाउ ॥
जैसे हलहर बिना जिमी नही बोईऐ ॥
सूत बिना कैसे मणी परोईऐ ॥
घुंडी बिनु किआ गंठि चड़्हाईऐ ॥
साधू बिनु तैसे अबगतु जाईऐ ॥२॥
जैसे मात पिता बिनु बालु न होई ॥
बि्मब बिना कैसे कपरे धोई ॥
घोर बिना कैसे असवार ॥
साधू बिनु नाही दरवार ॥३॥
जैसे बाजे बिनु नही लीजै फेरी ॥
खसमि दुहागनि तजि अउहेरी ॥
कहै कबीरु एकै करि करना ॥
गुरमुखि होइ बहुरि नही मरना ॥४॥६॥९॥872॥
122. कूटनु सोइ जु मन कउ कूटै
कूटनु सोइ जु मन कउ कूटै ॥
मन कूटै तउ जम ते छूटै ॥
कुटि कुटि मनु कसवटी लावै ॥
सो कूटनु मुकति बहु पावै ॥१॥
कूटनु किसै कहहु संसार ॥
सगल बोलन के माहि बीचार ॥१॥ रहाउ ॥
नाचनु सोइ जु मन सिउ नाचै ॥
झूठि न पतीऐ परचै साचै ॥
इसु मन आगे पूरै ताल ॥
इसु नाचन के मन रखवाल ॥२॥
बजारी सो जु बजारहि सोधै ॥
पांच पलीतह कउ परबोधै ॥
नउ नाइक की भगति पछानै ॥
सो बाजारी हम गुर माने ॥३॥
तसकरु सोइ जि ताति न करै ॥
इंद्री कै जतनि नामु उचरै ॥
कहु कबीर हम ऐसे लखन ॥
धंनु गुरदेव अति रूप बिचखन ॥४॥७॥१०॥872॥
123. काइआ कलालनि लाहनि मेलउ गुर का सबदु गुड़ु कीनु रे
काइआ कलालनि लाहनि मेलउ गुर का सबदु गुड़ु कीनु रे ॥
त्रिसना कामु क्रोधु मद मतसर काटि काटि कसु दीनु रे ॥१॥
कोई है रे संतु सहज सुख अंतरि जा कउ जपु तपु देउ दलाली रे ॥
एक बूंद भरि तनु मनु देवउ जो मदु देइ कलाली रे ॥१॥ रहाउ ॥
भवन चतुर दस भाठी कीन्ही ब्रहम अगनि तनि जारी रे ॥
मुद्रा मदक सहज धुनि लागी सुखमन पोचनहारी रे ॥२॥
तीरथ बरत नेम सुचि संजम रवि ससि गहनै देउ रे ॥
सुरति पिआल सुधा रसु अम्रितु एहु महा रसु पेउ रे ॥३॥
निझर धार चुऐ अति निरमल इह रस मनूआ रातो रे ॥
कहि कबीर सगले मद छूछे इहै महा रसु साचो रे ॥४॥१॥968॥
124. गुड़ु करि गिआनु धिआनु करि महूआ भउ भाठी मन धारा
गुड़ु करि गिआनु धिआनु करि महूआ भउ भाठी मन धारा ॥
सुखमन नारी सहज समानी पीवै पीवनहारा ॥१॥
अउधू मेरा मनु मतवारा ॥
उनमद चढा मदन रसु चाखिआ त्रिभवन भइआ उजिआरा ॥१॥ रहाउ ॥
दुइ पुर जोरि रसाई भाठी पीउ महा रसु भारी ॥
कामु क्रोधु दुइ कीए जलेता छूटि गई संसारी ॥२॥
प्रगट प्रगास गिआन गुर गमित सतिगुर ते सुधि पाई ॥
दासु कबीरु तासु मद माता उचकि न कबहू जाई ॥३॥२॥968॥
125. तूं मेरो मेरु परबतु सुआमी ओट गही मै तेरी
तूं मेरो मेरु परबतु सुआमी ओट गही मै तेरी ॥
ना तुम डोलहु ना हम गिरते रखि लीनी हरि मेरी ॥१॥
अब तब जब कब तुही तुही ॥
हम तुअ परसादि सुखी सद ही ॥१॥ रहाउ ॥
तोरे भरोसे मगहर बसिओ मेरे तन की तपति बुझाई ॥
पहिले दरसनु मगहर पाइओ फुनि कासी बसे आई ॥२॥
जैसा मगहरु तैसी कासी हम एकै करि जानी ॥
हम निरधन जिउ इहु धनु पाइआ मरते फूटि गुमानी ॥३॥
करै गुमानु चुभहि तिसु सूला को काढन कउ नाही ॥
अजै सु चोभ कउ बिलल बिलाते नरके घोर पचाही ॥४॥
कवनु नरकु किआ सुरगु बिचारा संतन दोऊ रादे ॥
हम काहू की काणि न कढते अपने गुर परसादे ॥५॥
अब तउ जाइ चढे सिंघासनि मिले है सारिंगपानी ॥
राम कबीरा एक भए है कोइ न सकै पछानी ॥६॥३॥969॥
126. संता मानउ दूता डानउ इह कुटवारी मेरी
संता मानउ दूता डानउ इह कुटवारी मेरी ॥
दिवस रैनि तेरे पाउ पलोसउ केस चवर करि फेरी ॥१॥
हम कूकर तेरे दरबारि ॥
भउकहि आगै बदनु पसारि ॥१॥ रहाउ ॥
पूरब जनम हम तुम्हरे सेवक अब तउ मिटिआ न जाई ॥
तेरे दुआरै धुनि सहज की माथै मेरे दगाई ॥२॥
दागे होहि सु रन महि जूझहि बिनु दागे भगि जाई ॥
साधू होइ सु भगति पछानै हरि लए खजानै पाई ॥३॥
कोठरे महि कोठरी परम कोठी बीचारि ॥
गुरि दीनी बसतु कबीर कउ लेवहु बसतु सम्हारि ॥४॥
कबीरि दीई संसार कउ लीनी जिसु मसतकि भागु ॥
अम्रित रसु जिनि पाइआ थिरु ता का सोहागु ॥५॥४॥969॥
127. तरवरु एकु अनंत डार साखा पुहप पत्र रस भरीआ
तरवरु एकु अनंत डार साखा पुहप पत्र रस भरीआ ॥
इह अम्रित की बाड़ी है रे तिनि हरि पूरै करीआ ॥१॥
जानी जानी रे राजा राम की कहानी ॥
अंतरि जोति राम परगासा गुरमुखि बिरलै जानी ॥१॥ रहाउ ॥
भवरु एकु पुहप रस बीधा बारह ले उर धरिआ ॥
सोरह मधे पवनु झकोरिआ आकासे फरु फरिआ ॥२॥
सहज सुंनि इकु बिरवा उपजिआ धरती जलहरु सोखिआ ॥
कहि कबीर हउ ता का सेवकु जिनि इहु बिरवा देखिआ ॥३॥६॥970॥
128. कवन काज सिरजे जग भीतरि जनमि कवन फलु पाइआ
कवन काज सिरजे जग भीतरि जनमि कवन फलु पाइआ ॥
भव निधि तरन तारन चिंतामनि इक निमख न इहु मनु लाइआ ॥१॥
गोबिंद हम ऐसे अपराधी ॥
जिनि प्रभि जीउ पिंडु था दीआ तिस की भाउ भगति नही साधी ॥१॥ रहाउ ॥
पर धन पर तन पर ती निंदा पर अपबादु न छूटै ॥
आवा गवनु होतु है फुनि फुनि इहु परसंगु न तूटै ॥२॥
जिह घरि कथा होत हरि संतन इक निमख न कीन्हो मै फेरा ॥
ल्मपट चोर दूत मतवारे तिन संगि सदा बसेरा ॥३॥
काम क्रोध माइआ मद मतसर ए स्मपै मो माही ॥
दइआ धरमु अरु गुर की सेवा ए सुपनंतरि नाही ॥४॥
दीन दइआल क्रिपाल दमोदर भगति बछल भै हारी ॥
कहत कबीर भीर जन राखहु हरि सेवा करउ तुम्हारी ॥५॥८॥970॥
129. जिह सिमरनि होइ मुकति दुआरु
जिह सिमरनि होइ मुकति दुआरु ॥
जाहि बैकुंठि नही संसारि ॥
निरभउ कै घरि बजावहि तूर ॥
अनहद बजहि सदा भरपूर ॥१॥
ऐसा सिमरनु करि मन माहि ॥
बिनु सिमरन मुकति कत नाहि ॥१॥ रहाउ ॥
जिह सिमरनि नाही ननकारु ॥
मुकति करै उतरै बहु भारु ॥
नमसकारु करि हिरदै माहि ॥
फिरि फिरि तेरा आवनु नाहि ॥२॥
जिह सिमरनि करहि तू केल ॥
दीपकु बांधि धरिओ बिनु तेल ॥
सो दीपकु अमरकु संसारि ॥
काम क्रोध बिखु काढीले मारि ॥३॥
जिह सिमरनि तेरी गति होइ ॥
सो सिमरनु रखु कंठि परोइ ॥
सो सिमरनु करि नही राखु उतारि ॥
गुर परसादी उतरहि पारि ॥४॥
जिह सिमरनि नाही तुहि कानि ॥
मंदरि सोवहि पट्मबर तानि ॥
सेज सुखाली बिगसै जीउ ॥
सो सिमरनु तू अनदिनु पीउ ॥५॥
जिह सिमरनि तेरी जाइ बलाइ ॥
जिह सिमरनि तुझु पोहै न माइ ॥
सिमरि सिमरि हरि हरि मनि गाईऐ ॥
इहु सिमरनु सतिगुर ते पाईऐ ॥६॥
सदा सदा सिमरि दिनु राति ॥
ऊठत बैठत सासि गिरासि ॥
जागु सोइ सिमरन रस भोग ॥
हरि सिमरनु पाईऐ संजोग ॥७॥
जिह सिमरनि नाही तुझु भार ॥
सो सिमरनु राम नाम अधारु ॥
कहि कबीर जा का नही अंतु ॥
तिस के आगे तंतु न मंतु ॥८॥९॥871॥
130. बंधचि बंधनु पाइआ
बंधचि बंधनु पाइआ ॥
मुकतै गुरि अनलु बुझाइआ ॥
जब नख सिख इहु मनु चीन्हा ॥
तब अंतरि मजनु कीन्हा ॥१॥
पवनपति उनमनि रहनु खरा ॥
नही मिरतु न जनमु जरा ॥१॥ रहाउ ॥
उलटी ले सकति सहारं ॥
पैसीले गगन मझारं ॥
बेधीअले चक्र भुअंगा ॥
भेटीअले राइ निसंगा ॥२॥
चूकीअले मोह मइआसा ॥
ससि कीनो सूर गिरासा ॥
जब कु्मभकु भरिपुरि लीणा ॥
तह बाजे अनहद बीणा ॥३॥
बकतै बकि सबदु सुनाइआ ॥
सुनतै सुनि मंनि बसाइआ ॥
करि करता उतरसि पारं ॥
कहै कबीरा सारं ॥४॥१॥१०॥971॥
131. चंदु सूरजु दुइ जोति सरूपु
चंदु सूरजु दुइ जोति सरूपु ॥
जोती अंतरि ब्रहमु अनूपु ॥१॥
करु रे गिआनी ब्रहम बीचारु ॥
जोती अंतरि धरिआ पसारु ॥१॥ रहाउ ॥
हीरा देखि हीरे करउ आदेसु ॥
कहै कबीरु निरंजन अलेखु ॥२॥२॥११॥972॥
132. दुनीआ हुसीआर बेदार जागत मुसीअत हउ रे भाई
दुनीआ हुसीआर बेदार जागत मुसीअत हउ रे भाई ॥
निगम हुसीआर पहरूआ देखत जमु ले जाई ॥१॥ रहाउ ॥
नंीबु भइओ आंबु आंबु भइओ नंीबा केला पाका झारि ॥
नालीएर फलु सेबरि पाका मूरख मुगध गवार ॥१॥
हरि भइओ खांडु रेतु महि बिखरिओ हसतीं चुनिओ न जाई ॥
कहि कमीर कुल जाति पांति तजि चीटी होइ चुनि खाई ॥२॥३॥१२॥972॥
133. रिधि सिधि जा कउ फुरी तब काहू सिउ किआ काज
रिधि सिधि जा कउ फुरी तब काहू सिउ किआ काज ॥
तेरे कहने की गति किआ कहउ मै बोलत ही बड लाज ॥१॥
रामु जिह पाइआ राम ॥
ते भवहि न बारै बार ॥१॥ रहाउ ॥
झूठा जगु डहकै घना दिन दुइ बरतन की आस ॥
राम उदकु जिह जन पीआ तिहि बहुरि न भई पिआस ॥२॥
गुर प्रसादि जिह बूझिआ आसा ते भइआ निरासु ॥
सभु सचु नदरी आइआ जउ आतम भइआ उदासु ॥३॥
राम नाम रसु चाखिआ हरि नामा हर तारि ॥
कहु कबीर कंचनु भइआ भ्रमु गइआ समुद्रै पारि ॥४॥३॥1103॥
134. जउ तुम्ह मो कउ दूरि करत हउ तउ तुम मुकति बतावहु
जउ तुम्ह मो कउ दूरि करत हउ तउ तुम मुकति बतावहु ॥
एक अनेक होइ रहिओ सगल महि अब कैसे भरमावहु ॥१॥
राम मो कउ तारि कहां लै जई है ॥
सोधउ मुकति कहा देउ कैसी करि प्रसादु मोहि पाई है ॥१॥ रहाउ ॥
तारन तरनु तबै लगु कहीऐ जब लगु ततु न जानिआ ॥
अब तउ बिमल भए घट ही महि कहि कबीर मनु मानिआ ॥२॥५॥1104॥
135. अनभउ किनै न देखिआ बैरागीअड़े
अनभउ किनै न देखिआ बैरागीअड़े ॥
बिनु भै अनभउ होइ वणाह्मबै ॥१॥
सहु हदूरि देखै तां भउ पवै बैरागीअड़े ॥
हुकमै बूझै त निरभउ होइ वणाह्मबै ॥२॥
हरि पाखंडु न कीजई बैरागीअड़े ॥
पाखंडि रता सभु लोकु वणाह्मबै ॥३॥
त्रिसना पासु न छोडई बैरागीअड़े ॥
ममता जालिआ पिंडु वणाह्मबै ॥४॥
चिंता जालि तनु जालिआ बैरागीअड़े ॥
जे मनु मिरतकु होइ वणाह्मबै ॥५॥
सतिगुर बिनु बैरागु न होवई बैरागीअड़े ॥
जे लोचै सभु कोइ वणाह्मबै ॥६॥
करमु होवै सतिगुरु मिलै बैरागीअड़े ॥
सहजे पावै सोइ वणाह्मबै ॥७॥
कहु कबीर इक बेनती बैरागीअड़े ॥
मो कउ भउजलु पारि उतारि वणाह्मबै ॥८॥१॥८॥1104॥
136. रामु सिमरु पछुताहिगा मन
रामु सिमरु पछुताहिगा मन ॥
पापी जीअरा लोभु करतु है आजु कालि उठि जाहिगा ॥१॥ रहाउ ॥
लालच लागे जनमु गवाइआ माइआ भरम भुलाहिगा ॥
धन जोबन का गरबु न कीजै कागद जिउ गलि जाहिगा ॥१॥
जउ जमु आइ केस गहि पटकै ता दिन किछु न बसाहिगा ॥
सिमरनु भजनु दइआ नही कीनी तउ मुखि चोटा खाहिगा ॥२॥
धरम राइ जब लेखा मागै किआ मुखु लै कै जाहिगा ॥
कहतु कबीरु सुनहु रे संतहु साधसंगति तरि जांहिगा ॥३॥१॥1106॥
137. किनही बनजिआ कांसी तांबा किनही लउग सुपारी
किनही बनजिआ कांसी तांबा किनही लउग सुपारी ॥
संतहु बनजिआ नामु गोबिद का ऐसी खेप हमारी ॥१॥
हरि के नाम के बिआपारी ॥
हीरा हाथि चड़िआ निरमोलकु छूटि गई संसारी ॥१॥ रहाउ ॥
साचे लाए तउ सच लागे साचे के बिउहारी ॥
साची बसतु के भार चलाए पहुचे जाइ भंडारी ॥२॥
आपहि रतन जवाहर मानिक आपै है पासारी ॥
आपै दह दिस आप चलावै निहचलु है बिआपारी ॥३॥
मनु करि बैलु सुरति करि पैडा गिआन गोनि भरि डारी ॥
कहतु कबीरु सुनहु रे संतहु निबही खेप हमारी ॥४॥२॥1123॥
138. री कलवारि गवारि मूढ मति उलटो पवनु फिरावउ
री कलवारि गवारि मूढ मति उलटो पवनु फिरावउ ॥
मनु मतवार मेर सर भाठी अम्रित धार चुआवउ ॥१॥
बोलहु भईआ राम की दुहाई ॥
पीवहु संत सदा मति दुरलभ सहजे पिआस बुझाई ॥१॥ रहाउ ॥
भै बिचि भाउ भाइ कोऊ बूझहि हरि रसु पावै भाई ॥
जेते घट अम्रितु सभ ही महि भावै तिसहि पीआई ॥२॥
नगरी एकै नउ दरवाजे धावतु बरजि रहाई ॥
त्रिकुटी छूटै दसवा दरु खूल्है ता मनु खीवा भाई ॥३॥
अभै पद पूरि ताप तह नासे कहि कबीर बीचारी ॥
उबट चलंते इहु मदु पाइआ जैसे खोंद खुमारी ॥४॥३॥1123॥
139. इहु धनु मेरे हरि को नाउ
इहु धनु मेरे हरि को नाउ ॥
गांठि न बाधउ बेचि न खाउ ॥१॥ रहाउ ॥
नाउ मेरे खेती नाउ मेरे बारी ॥
भगति करउ जनु सरनि तुम्हारी ॥१॥
नाउ मेरे माइआ नाउ मेरे पूंजी ॥
तुमहि छोडि जानउ नही दूजी ॥२॥
नाउ मेरे बंधिप नाउ मेरे भाई ॥
नाउ मेरे संगि अंति होइ सखाई ॥३॥
माइआ महि जिसु रखै उदासु ॥
कहि कबीर हउ ता को दासु ॥४॥१॥1157॥
140. गुर सेवा ते भगति कमाई
गुर सेवा ते भगति कमाई ॥
तब इह मानस देही पाई ॥
इस देही कउ सिमरहि देव ॥
सो देही भजु हरि की सेव ॥१॥
भजहु गोबिंद भूलि मत जाहु ॥
मानस जनम का एही लाहु ॥१॥ रहाउ ॥
जब लगु जरा रोगु नही आइआ ॥
जब लगु कालि ग्रसी नही काइआ ॥
जब लगु बिकल भई नही बानी ॥
भजि लेहि रे मन सारिगपानी ॥२॥
अब न भजसि भजसि कब भाई ॥
आवै अंतु न भजिआ जाई ॥
जो किछु करहि सोई अब सारु ॥
फिरि पछुताहु न पावहु पारु ॥३॥
सो सेवकु जो लाइआ सेव ॥
तिन ही पाए निरंजन देव ॥
गुर मिलि ता के खुल्हे कपाट ॥
बहुरि न आवै जोनी बाट ॥४॥
इही तेरा अउसरु इह तेरी बार ॥
घट भीतरि तू देखु बिचारि ॥
कहत कबीरु जीति कै हारि ॥
बहु बिधि कहिओ पुकारि पुकारि ॥५॥१॥९॥1159॥
Bhakt kabir ji ke shabad 121 se 140 tak
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