भक्त कबीर जी के शब्द - १४१ से १५० तक

भक्त कबीर जी के शब्द - १४१ से १५० तक

141. सिव की पुरी बसै बुधि सारु
सिव की पुरी बसै बुधि सारु ॥
तह तुम्ह मिलि कै करहु बिचारु ॥
ईत ऊत की सोझी परै ॥
कउनु करम मेरा करि करि मरै ॥१॥
निज पद ऊपरि लागो धिआनु ॥
राजा राम नामु मोरा ब्रहम गिआनु ॥१॥ रहाउ ॥
मूल दुआरै बंधिआ बंधु ॥
रवि ऊपरि गहि राखिआ चंदु ॥
पछम दुआरै सूरजु तपै ॥
मेर डंड सिर ऊपरि बसै ॥२॥
पसचम दुआरे की सिल ओड़ ॥
तिह सिल ऊपरि खिड़की अउर ॥
खिड़की ऊपरि दसवा दुआरु ॥
कहि कबीर ता का अंतु न पारु ॥३॥२॥१०॥1159॥

142. जल महि मीन माइआ के बेधे
जल महि मीन माइआ के बेधे ॥
दीपक पतंग माइआ के छेदे ॥
काम माइआ कुंचर कउ बिआपै ॥
भुइअंगम भ्रिंग माइआ महि खापे ॥१॥
माइआ ऐसी मोहनी भाई ॥
जेते जीअ तेते डहकाई ॥१॥ रहाउ ॥
पंखी म्रिग माइआ महि राते ॥
साकर माखी अधिक संतापे ॥
तुरे उसट माइआ महि भेला ॥
सिध चउरासीह माइआ महि खेला ॥२॥
छिअ जती माइआ के बंदा ॥
नवै नाथ सूरज अरु चंदा ॥
तपे रखीसर माइआ महि सूता ॥
माइआ महि कालु अरु पंच दूता ॥३॥
सुआन सिआल माइआ महि राता ॥
बंतर चीते अरु सिंघाता ॥
मांजार गाडर अरु लूबरा ॥
बिरख मूल माइआ महि परा ॥४॥
माइआ अंतरि भीने देव ॥
सागर इंद्रा अरु धरतेव ॥
कहि कबीर जिसु उदरु तिसु माइआ ॥
तब छूटे जब साधू पाइआ ॥५॥५॥१३॥1160॥

143. सतरि सैइ सलार है जा के
सतरि सैइ सलार है जा के ॥
सवा लाखु पैकाबर ता के ॥
सेख जु कहीअहि कोटि अठासी ॥
छपन कोटि जा के खेल खासी ॥१॥
मो गरीब की को गुजरावै ॥
मजलसि दूरि महलु को पावै ॥१॥ रहाउ ॥
तेतीस करोड़ी है खेल खाना ॥
चउरासी लख फिरै दिवानां ॥
बाबा आदम कउ किछु नदरि दिखाई ॥
उनि भी भिसति घनेरी पाई ॥२॥
दिल खलहलु जा कै जरद रू बानी ॥
छोडि कतेब करै सैतानी ॥
दुनीआ दोसु रोसु है लोई ॥
अपना कीआ पावै सोई ॥३॥
तुम दाते हम सदा भिखारी ॥
देउ जबाबु होइ बजगारी ॥
दासु कबीरु तेरी पनह समानां ॥
भिसतु नजीकि राखु रहमाना ॥४॥७॥१५॥1161॥

144. किउ लीजै गढु बंका भाई
किउ लीजै गढु बंका भाई ॥
दोवर कोट अरु तेवर खाई ॥१॥ रहाउ ॥
पांच पचीस मोह मद मतसर आडी परबल माइआ ॥
जन गरीब को जोरु न पहुचै कहा करउ रघुराइआ ॥१॥
कामु किवारी दुखु सुखु दरवानी पापु पुंनु दरवाजा ॥
क्रोधु प्रधानु महा बड दुंदर तह मनु मावासी राजा ॥२॥
स्वाद सनाह टोपु ममता को कुबुधि कमान चढाई ॥
तिसना तीर रहे घट भीतरि इउ गढु लीओ न जाई ॥३॥
प्रेम पलीता सुरति हवाई गोला गिआनु चलाइआ ॥
ब्रहम अगनि सहजे परजाली एकहि चोट सिझाइआ ॥४॥
सतु संतोखु लै लरने लागा तोरे दुइ दरवाजा ॥
साधसंगति अरु गुर की क्रिपा ते पकरिओ गढ को राजा ॥५॥
भगवत भीरि सकति सिमरन की कटी काल भै फासी ॥
दासु कमीरु चड़्हिओ गड़्ह ऊपरि राजु लीओ अबिनासी ॥६॥९॥१७॥1161॥

145. अगम द्रुगम गड़ि रचिओ बास
अगम द्रुगम गड़ि रचिओ बास ॥
जा महि जोति करे परगास ॥
बिजुली चमकै होइ अनंदु ॥
जिह पउड़्हे प्रभ बाल गोबिंद ॥१॥
इहु जीउ राम नाम लिव लागै ॥
जरा मरनु छूटै भ्रमु भागै ॥१॥ रहाउ ॥
अबरन बरन सिउ मन ही प्रीति ॥
हउमै गावनि गावहि गीत ॥
अनहद सबद होत झुनकार ॥
जिह पउड़्हे प्रभ स्री गोपाल ॥२॥
खंडल मंडल मंडल मंडा ॥
त्रिअ असथान तीनि त्रिअ खंडा ॥
अगम अगोचरु रहिआ अभ अंत ॥
पारु न पावै को धरनीधर मंत ॥३॥
कदली पुहप धूप परगास ॥
रज पंकज महि लीओ निवास ॥
दुआदस दल अभ अंतरि मंत ॥
जह पउड़े स्री कमला कंत ॥४॥
अरध उरध मुखि लागो कासु ॥
सुंन मंडल महि करि परगासु ॥
ऊहां सूरज नाही चंद ॥
आदि निरंजनु करै अनंद ॥५॥
सो ब्रहमंडि पिंडि सो जानु ॥
मान सरोवरि करि इसनानु ॥
सोहं सो जा कउ है जाप ॥
जा कउ लिपत न होइ पुंन अरु पाप ॥६॥
अबरन बरन घाम नही छाम ॥
अवर न पाईऐ गुर की साम ॥
टारी न टरै आवै न जाइ ॥
सुंन सहज महि रहिओ समाइ ॥७॥
मन मधे जानै जे कोइ ॥
जो बोलै सो आपै होइ ॥
जोति मंत्रि मनि असथिरु करै ॥
कहि कबीर सो प्रानी तरै ॥८॥१॥1162॥

146. कोटि सूर जा कै परगास
कोटि सूर जा कै परगास ॥
कोटि महादेव अरु कबिलास ॥
दुरगा कोटि जा कै मरदनु करै ॥
ब्रहमा कोटि बेद उचरै ॥१॥
जउ जाचउ तउ केवल राम ॥
आन देव सिउ नाही काम ॥१॥ रहाउ ॥
कोटि चंद्रमे करहि चराक ॥
सुर तेतीसउ जेवहि पाक ॥
नव ग्रह कोटि ठाढे दरबार ॥
धरम कोटि जा कै प्रतिहार ॥२॥
पवन कोटि चउबारे फिरहि ॥
बासक कोटि सेज बिसथरहि ॥
समुंद कोटि जा के पानीहार ॥
रोमावलि कोटि अठारह भार ॥३॥
कोटि कमेर भरहि भंडार ॥
कोटिक लखिमी करै सीगार ॥
कोटिक पाप पुंन बहु हिरहि ॥
इंद्र कोटि जा के सेवा करहि ॥४॥
छपन कोटि जा कै प्रतिहार ॥
नगरी नगरी खिअत अपार ॥
लट छूटी वरतै बिकराल ॥
कोटि कला खेलै गोपाल ॥५॥
कोटि जग जा कै दरबार ॥
गंध्रब कोटि करहि जैकार ॥
बिदिआ कोटि सभै गुन कहै ॥
तऊ पारब्रहम का अंतु न लहै ॥६॥
बावन कोटि जा कै रोमावली ॥
रावन सैना जह ते छली ॥
सहस कोटि बहु कहत पुरान ॥
दुरजोधन का मथिआ मानु ॥७॥
कंद्रप कोटि जा कै लवै न धरहि ॥
अंतर अंतरि मनसा हरहि ॥
कहि कबीर सुनि सारिगपान ॥
देहि अभै पदु मांगउ दान ॥८॥२॥१८॥२०॥1162॥

147. जोइ खसमु है जाइआ
जोइ खसमु है जाइआ ॥
पूति बापु खेलाइआ ॥
बिनु स्रवणा खीरु पिलाइआ ॥१॥
देखहु लोगा कलि को भाउ ॥
सुति मुकलाई अपनी माउ ॥१॥ रहाउ ॥
पगा बिनु हुरीआ मारता ॥
बदनै बिनु खिर खिर हासता ॥
निद्रा बिनु नरु पै सोवै ॥
बिनु बासन खीरु बिलोवै ॥२॥
बिनु असथन गऊ लवेरी ॥
पैडे बिनु बाट घनेरी ॥
बिनु सतिगुर बाट न पाई ॥
कहु कबीर समझाई ॥३॥३॥1194॥

148. इसु तन मन मधे मदन चोर
इसु तन मन मधे मदन चोर ॥
जिनि गिआन रतनु हिरि लीन मोर ॥
मै अनाथु प्रभ कहउ काहि ॥
को को न बिगूतो मै को आहि ॥१॥
माधउ दारुन दुखु सहिओ न जाइ ॥
मेरो चपल बुधि सिउ कहा बसाइ ॥१॥ रहाउ ॥
सनक सनंदन सिव सुकादि ॥
नाभि कमल जाने ब्रहमादि ॥
कबि जन जोगी जटाधारि ॥
सभ आपन अउसर चले सारि ॥२॥
तू अथाहु मोहि थाह नाहि ॥
प्रभ दीना नाथ दुखु कहउ काहि ॥
मोरो जनम मरन दुखु आथि धीर ॥
सुख सागर गुन रउ कबीर ॥३॥५॥1194॥

149. नाइकु एकु बनजारे पाच
नाइकु एकु बनजारे पाच ॥
बरध पचीसक संगु काच ॥
नउ बहीआं दस गोनि आहि ॥
कसनि बहतरि लागी ताहि ॥१॥
मोहि ऐसे बनज सिउ नहीन काजु ॥
जिह घटै मूलु नित बढै बिआजु ॥ रहाउ ॥
सात सूत मिलि बनजु कीन ॥
करम भावनी संग लीन ॥
तीनि जगाती करत रारि ॥
चलो बनजारा हाथ झारि ॥२॥
पूंजी हिरानी बनजु टूट ॥
दह दिस टांडो गइओ फूटि ॥
कहि कबीर मन सरसी काज ॥
सहज समानो त भरम भाज ॥३॥६॥1194॥

150. सुरह की जैसी तेरी चाल
सुरह की जैसी तेरी चाल ॥
तेरी पूंछट ऊपरि झमक बाल ॥१॥
इस घर महि है सु तू ढूंढि खाहि ॥
अउर किस ही के तू मति ही जाहि ॥१॥ रहाउ ॥
चाकी चाटहि चूनु खाहि ॥
चाकी का चीथरा कहां लै जाहि ॥२॥
छीके पर तेरी बहुतु डीठि ॥
मतु लकरी सोटा तेरी परै पीठि ॥३॥
कहि कबीर भोग भले कीन ॥
मति कोऊ मारै ईंट ढेम ॥४॥१॥1196॥

Bhakt kabir ji ke shabad 141 se 150 tak

Previous Post
Next Post

post written by:

0 Comments: