भक्त कबीर जी के शब्द - ६१ से ८० तक

भक्त कबीर जी के शब्द - ६१ से ८० तक

61. राम सिमरि राम सिमरि राम सिमरि भाई
राम सिमरि राम सिमरि राम सिमरि भाई ॥
राम नाम सिमरन बिनु बूडते अधिकाई ॥१॥ रहाउ ॥
बनिता सुत देह ग्रेह स्मपति सुखदाई ॥
इन्ह मै कछु नाहि तेरो काल अवध आई ॥१॥
अजामल गज गनिका पतित करम कीने ॥
तेऊ उतरि पारि परे राम नाम लीने ॥२॥
सूकर कूकर जोनि भ्रमे तऊ लाज न आई ॥
राम नाम छाडि अम्रित काहे बिखु खाई ॥३॥
तजि भरम करम बिधि निखेध राम नामु लेही ॥
गुर प्रसादि जन कबीर रामु करि सनेही ॥४॥५॥692॥

62. बेद कतेब इफतरा भाई दिल का फिकरु न जाइ
बेद कतेब इफतरा भाई दिल का फिकरु न जाइ ॥
टुकु दमु करारी जउ करहु हाजिर हजूरि खुदाइ ॥१॥
बंदे खोजु दिल हर रोज ना फिरु परेसानी माहि ॥
इह जु दुनीआ सिहरु मेला दसतगीरी नाहि ॥१॥ रहाउ ॥
दरोगु पड़ि पड़ि खुसी होइ बेखबर बादु बकाहि ॥
हकु सचु खालकु खलक मिआने सिआम मूरति नाहि ॥२॥
असमान ‍िम्याने लहंग दरीआ गुसल करदन बूद ॥
करि फकरु दाइम लाइ चसमे जह तहा मउजूदु ॥३॥
अलाह पाकं पाक है सक करउ जे दूसर होइ ॥
कबीर करमु करीम का उहु करै जानै सोइ ॥४॥१॥727॥

63. अमलु सिरानो लेखा देना
अमलु सिरानो लेखा देना ॥
आए कठिन दूत जम लेना ॥
किआ तै खटिआ कहा गवाइआ ॥
चलहु सिताब दीबानि बुलाइआ ॥१॥
चलु दरहालु दीवानि बुलाइआ ॥
हरि फुरमानु दरगह का आइआ ॥१॥ रहाउ ॥
करउ अरदासि गाव किछु बाकी ॥
लेउ निबेरि आजु की राती ॥
किछु भी खरचु तुम्हारा सारउ ॥
सुबह निवाज सराइ गुजारउ ॥२॥
साधसंगि जा कउ हरि रंगु लागा ॥
धनु धनु सो जनु पुरखु सभागा ॥
ईत ऊत जन सदा सुहेले ॥
जनमु पदारथु जीति अमोले ॥३॥
जागतु सोइआ जनमु गवाइआ ॥
मालु धनु जोरिआ भइआ पराइआ ॥
कहु कबीर तेई नर भूले ॥
खसमु बिसारि माटी संगि रूले ॥४॥३॥792॥

64. थाके नैन स्रवन सुनि थाके थाकी सुंदरि काइआ
थाके नैन स्रवन सुनि थाके थाकी सुंदरि काइआ ॥
जरा हाक दी सभ मति थाकी एक न थाकसि माइआ ॥१॥
बावरे तै गिआन बीचारु न पाइआ ॥
बिरथा जनमु गवाइआ ॥१॥ रहाउ ॥
तब लगु प्रानी तिसै सरेवहु जब लगु घट महि सासा ॥
जे घटु जाइ त भाउ न जासी हरि के चरन निवासा ॥२॥
जिस कउ सबदु बसावै अंतरि चूकै तिसहि पिआसा ॥
हुकमै बूझै चउपड़ि खेलै मनु जिणि ढाले पासा ॥३॥
जो जन जानि भजहि अबिगत कउ तिन का कछू न नासा ॥
कहु कबीर ते जन कबहु न हारहि ढालि जु जानहि पासा ॥४॥४॥793॥

65. ऐसो इहु संसारु पेखना रहनु न कोऊ पईहै रे
ऐसो इहु संसारु पेखना रहनु न कोऊ पईहै रे ॥
सूधे सूधे रेगि चलहु तुम नतर कुधका दिवईहै रे ॥१॥ रहाउ ॥
बारे बूढे तरुने भईआ सभहू जमु लै जईहै रे ॥
मानसु बपुरा मूसा कीनो मीचु बिलईआ खईहै रे ॥१॥
धनवंता अरु निरधन मनई ता की कछू न कानी रे ॥
राजा परजा सम करि मारै ऐसो कालु बडानी रे ॥२॥
हरि के सेवक जो हरि भाए तिन्ह की कथा निरारी रे ॥
आवहि न जाहि न कबहू मरते पारब्रहम संगारी रे ॥३॥
पुत्र कलत्र लछिमी माइआ इहै तजहु जीअ जानी रे ॥
कहत कबीरु सुनहु रे संतहु मिलिहै सारिगपानी रे ॥४॥१॥855॥

66. बिदिआ न परउ बादु नही जानउ
बिदिआ न परउ बादु नही जानउ ॥
हरि गुन कथत सुनत बउरानो ॥१॥
मेरे बाबा मै बउरा सभ खलक सैआनी मै बउरा ॥
मै बिगरिओ बिगरै मति अउरा ॥१॥ रहाउ ॥
आपि न बउरा राम कीओ बउरा ॥
सतिगुरु जारि गइओ भ्रमु मोरा ॥२॥
मै बिगरे अपनी मति खोई ॥
मेरे भरमि भूलउ मति कोई ॥३॥
सो बउरा जो आपु न पछानै ॥
आपु पछानै त एकै जानै ॥४॥
अबहि न माता सु कबहु न माता ॥
कहि कबीर रामै रंगि राता ॥५॥२॥855॥

67. ग्रिहु तजि बन खंड जाईऐ चुनि खाईऐ कंदा
ग्रिहु तजि बन खंड जाईऐ चुनि खाईऐ कंदा ॥
अजहु बिकार न छोडई पापी मनु मंदा ॥१॥
किउ छूटउ कैसे तरउ भवजल निधि भारी ॥
राखु राखु मेरे बीठुला जनु सरनि तुम्हारी ॥१॥ रहाउ ॥
बिखै बिखै की बासना तजीअ नह जाई ॥
अनिक जतन करि राखीऐ फिरि फिरि लपटाई ॥२॥
जरा जीवन जोबनु गइआ किछु कीआ न नीका ॥
इहु जीअरा निरमोलको कउडी लगि मीका ॥३॥
कहु कबीर मेरे माधवा तू सरब बिआपी ॥
तुम समसरि नाही दइआलु मोहि समसरि पापी ॥४॥३॥855॥

68. नित उठि कोरी गागरि आनै लीपत जीउ गइओ
नित उठि कोरी गागरि आनै लीपत जीउ गइओ ॥
ताना बाना कछू न सूझै हरि हरि रसि लपटिओ ॥१॥
हमारे कुल कउने रामु कहिओ ॥
जब की माला लई निपूते तब ते सुखु न भइओ ॥१॥ रहाउ ॥
सुनहु जिठानी सुनहु दिरानी अचरजु एकु भइओ ॥
सात सूत इनि मुडींए खोए इहु मुडीआ किउ न मुइओ ॥२॥
सरब सुखा का एकु हरि सुआमी सो गुरि नामु दइओ ॥
संत प्रहलाद की पैज जिनि राखी हरनाखसु नख बिदरिओ ॥३॥
घर के देव पितर की छोडी गुर को सबदु लइओ ॥
कहत कबीरु सगल पाप खंडनु संतह लै उधरिओ ॥४॥४॥856॥

69. संतु मिलै किछु सुनीऐ कहीऐ
संतु मिलै किछु सुनीऐ कहीऐ ॥
मिलै असंतु मसटि करि रहीऐ ॥१॥
बाबा बोलना किआ कहीऐ ॥
जैसे राम नाम रवि रहीऐ ॥१॥ रहाउ ॥
संतन सिउ बोले उपकारी ॥
मूरख सिउ बोले झख मारी ॥२॥
बोलत बोलत बढहि बिकारा ॥
बिनु बोले किआ करहि बीचारा ॥३॥
कहु कबीर छूछा घटु बोलै ॥
भरिआ होइ सु कबहु न डोलै ॥४॥१॥870॥

70. नरू मरै नरु कामि न आवै
नरू मरै नरु कामि न आवै ॥
पसू मरै दस काज सवारै ॥१॥
अपने करम की गति मै किआ जानउ ॥
मै किआ जानउ बाबा रे ॥१॥ रहाउ ॥
हाड जले जैसे लकरी का तूला ॥
केस जले जैसे घास का पूला ॥२॥
कहु कबीर तब ही नरु जागै ॥
जम का डंडु मूंड महि लागै ॥३॥२॥870॥

71. भुजा बांधि भिला करि डारिओ
भुजा बांधि भिला करि डारिओ ॥
हसती क्रोपि मूंड महि मारिओ ॥
हसति भागि कै चीसा मारै ॥
इआ मूरति कै हउ बलिहारै ॥१॥
आहि मेरे ठाकुर तुमरा जोरु ॥
काजी बकिबो हसती तोरु ॥१॥ रहाउ ॥
रे महावत तुझु डारउ काटि ॥
इसहि तुरावहु घालहु साटि ॥
हसति न तोरै धरै धिआनु ॥
वा कै रिदै बसै भगवानु ॥२॥
किआ अपराधु संत है कीन्हा ॥
बांधि पोट कुंचर कउ दीन्हा ॥
कुंचरु पोट लै लै नमसकारै ॥
बूझी नही काजी अंधिआरै ॥३॥
तीनि बार पतीआ भरि लीना ॥
मन कठोरु अजहू न पतीना ॥
कहि कबीर हमरा गोबिंदु ॥
चउथे पद महि जन की जिंदु ॥४॥१॥४॥870॥

72. ना इहु मानसु ना इहु देउ
ना इहु मानसु ना इहु देउ ॥
ना इहु जती कहावै सेउ ॥
ना इहु जोगी ना अवधूता ॥
ना इसु माइ न काहू पूता ॥१॥
इआ मंदर महि कौन बसाई ॥
ता का अंतु न कोऊ पाई ॥१॥ रहाउ ॥
ना इहु गिरही ना ओदासी ॥
ना इहु राज न भीख मंगासी ॥
ना इसु पिंडु न रकतू राती ॥
ना इहु ब्रहमनु ना इहु खाती ॥२॥
ना इहु तपा कहावै सेखु ॥
ना इहु जीवै न मरता देखु ॥
इसु मरते कउ जे कोऊ रोवै ॥
जो रोवै सोई पति खोवै ॥३॥
गुर प्रसादि मै डगरो पाइआ ॥
जीवन मरनु दोऊ मिटवाइआ ॥
कहु कबीर इहु राम की अंसु ॥
जस कागद पर मिटै न मंसु ॥४॥२॥५॥871॥

73. तूटे तागे निखुटी पानि
तूटे तागे निखुटी पानि ॥
दुआर ऊपरि झिलकावहि कान ॥
कूच बिचारे फूए फाल ॥
इआ मुंडीआ सिरि चढिबो काल ॥१॥
इहु मुंडीआ सगलो द्रबु खोई ॥
आवत जात नाक सर होई ॥१॥ रहाउ ॥
तुरी नारि की छोडी बाता ॥
राम नाम वा का मनु राता ॥
लरिकी लरिकन खैबो नाहि ॥
मुंडीआ अनदिनु धापे जाहि ॥२॥
इक दुइ मंदरि इक दुइ बाट ॥
हम कउ साथरु उन कउ खाट ॥
मूड पलोसि कमर बधि पोथी ॥
हम कउ चाबनु उन कउ रोटी ॥३॥
मुंडीआ मुंडीआ हूए एक ॥
ए मुंडीआ बूडत की टेक ॥
सुनि अंधली लोई बेपीरि ॥
इन्ह मुंडीअन भजि सरनि कबीर ॥४॥३॥६॥871॥

74. धंनु गुपाल धंनु गुरदेव
धंनु गुपाल धंनु गुरदेव ॥
धंनु अनादि भूखे कवलु टहकेव ॥
धनु ओइ संत जिन ऐसी जानी ॥
तिन कउ मिलिबो सारिंगपानी ॥१॥
आदि पुरख ते होइ अनादि ॥
जपीऐ नामु अंन कै सादि ॥१॥ रहाउ ॥
जपीऐ नामु जपीऐ अंनु ॥
अम्भै कै संगि नीका वंनु ॥
अंनै बाहरि जो नर होवहि ॥
तीनि भवन महि अपनी खोवहि ॥२॥
छोडहि अंनु करहि पाखंड ॥
ना सोहागनि ना ओहि रंड ॥
जग महि बकते दूधाधारी ॥
गुपती खावहि वटिका सारी ॥३॥
अंनै बिना न होइ सुकालु ॥
तजिऐ अंनि न मिलै गुपालु ॥
कहु कबीर हम ऐसे जानिआ ॥
धंनु अनादि ठाकुर मनु मानिआ ॥४॥८॥११॥873॥

75. जिह मुख बेदु गाइत्री निकसै सो किउ ब्रहमनु बिसरु करै
जिह मुख बेदु गाइत्री निकसै सो किउ ब्रहमनु बिसरु करै ॥
जा कै पाइ जगतु सभु लागै सो किउ पंडितु हरि न कहै ॥१॥
काहे मेरे बाम्हन हरि न कहहि ॥
रामु न बोलहि पाडे दोजकु भरहि ॥१॥ रहाउ ॥
आपन ऊच नीच घरि भोजनु हठे करम करि उदरु भरहि ॥
चउदस अमावस रचि रचि मांगहि कर दीपकु लै कूपि परहि ॥२॥
तूं ब्रहमनु मै कासीक जुलहा मुहि तोहि बराबरी कैसे कै बनहि ॥
हमरे राम नाम कहि उबरे बेद भरोसे पांडे डूबि मरहि ॥३॥५॥970॥

76. मुंद्रा मोनि दइआ करि झोली पत्र का करहु बीचारु रे
मुंद्रा मोनि दइआ करि झोली पत्र का करहु बीचारु रे ॥
खिंथा इहु तनु सीअउ अपना नामु करउ आधारु रे ॥१॥
ऐसा जोगु कमावहु जोगी ॥
जप तप संजमु गुरमुखि भोगी ॥१॥ रहाउ ॥
बुधि बिभूति चढावउ अपुनी सिंगी सुरति मिलाई ॥
करि बैरागु फिरउ तनि नगरी मन की किंगुरी बजाई ॥२॥
पंच ततु लै हिरदै राखहु रहै निरालम ताड़ी ॥
कहतु कबीरु सुनहु रे संतहु धरमु दइआ करि बाड़ी ॥३॥७॥970॥

77. पडीआ कवन कुमति तुम लागे
पडीआ कवन कुमति तुम लागे ॥
बूडहुगे परवार सकल सिउ रामु न जपहु अभागे ॥१॥ रहाउ ॥
बेद पुरान पड़े का किआ गुनु खर चंदन जस भारा ॥
राम नाम की गति नही जानी कैसे उतरसि पारा ॥१॥
जीअ बधहु सु धरमु करि थापहु अधरमु कहहु कत भाई ॥
आपस कउ मुनिवर करि थापहु का कउ कहहु कसाई ॥२॥
मन के अंधे आपि न बूझहु काहि बुझावहु भाई ॥
माइआ कारन बिदिआ बेचहु जनमु अबिरथा जाई ॥३॥
नारद बचन बिआसु कहत है सुक कउ पूछहु जाई ॥
कहि कबीर रामै रमि छूटहु नाहि त बूडे भाई ॥४॥१॥1102॥

78. बनहि बसे किउ पाईऐ जउ लउ मनहु न तजहि बिकार
बनहि बसे किउ पाईऐ जउ लउ मनहु न तजहि बिकार ॥
जिह घरु बनु समसरि कीआ ते पूरे संसार ॥१॥
सार सुखु पाईऐ रामा ॥
रंगि रवहु आतमै राम ॥१॥ रहाउ ॥
जटा भसम लेपन कीआ कहा गुफा महि बासु ॥
मनु जीते जगु जीतिआ जां ते बिखिआ ते होइ उदासु ॥२॥
अंजनु देइ सभै कोई टुकु चाहन माहि बिडानु ॥
गिआन अंजनु जिह पाइआ ते लोइन परवानु ॥३॥
कहि कबीर अब जानिआ गुरि गिआनु दीआ समझाइ ॥
अंतरगति हरि भेटिआ अब मेरा मनु कतहू न जाइ ॥४॥२॥1103॥

79. उदक समुंद सलल की साखिआ नदी तरंग समावहिगे
उदक समुंद सलल की साखिआ नदी तरंग समावहिगे ॥
सुंनहि सुंनु मिलिआ समदरसी पवन रूप होइ जावहिगे ॥१॥
बहुरि हम काहे आवहिगे ॥
आवन जाना हुकमु तिसै का हुकमै बुझि समावहिगे ॥१॥ रहाउ ॥
जब चूकै पंच धातु की रचना ऐसे भरमु चुकावहिगे ॥
दरसनु छोडि भए समदरसी एको नामु धिआवहिगे ॥२॥
जित हम लाए तित ही लागे तैसे करम कमावहिगे ॥
हरि जी क्रिपा करे जउ अपनी तौ गुर के सबदि समावहिगे ॥३॥
जीवत मरहु मरहु फुनि जीवहु पुनरपि जनमु न होई ॥
कहु कबीर जो नामि समाने सुंन रहिआ लिव सोई ॥४॥४॥1103॥

80. जिनि गड़ कोट कीए कंचन के छोडि गइआ सो रावनु
जिनि गड़ कोट कीए कंचन के छोडि गइआ सो रावनु ॥१॥
काहे कीजतु है मनि भावनु ॥
जब जमु आइ केस ते पकरै तह हरि को नामु छडावन ॥१॥ रहाउ ॥
कालु अकालु खसम का कीन्हा इहु परपंचु बधावनु ॥
कहि कबीर ते अंते मुकते जिन्ह हिरदै राम रसाइनु ॥२॥६॥1104॥

(Bhakt kabir ji ke shabad 61 se 80 tak)



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