
ढाई अक्षर प्रेम के, गूढ मगर है सार,
एक शब्द की नींव पे, टिका हुआ संसार।
प्रेम तृप्ति का रूप है,प्रेम अधूरी प्यास,
इसके मालिक आप हैं, हम इसी के दास ||1||
प्रेम न मांगे सम्पदा, प्रेम न मांगे भोग,
जग बैरी उसके लिए, जिसे प्रेम का रोग ||2||
प्रेम विजित है सर्वदा, हारे कभी न प्रेम,
प्रेम पंथ अपनाइए, पाएँ सच्चा प्रेम ||3||
देखी इस संसार में, हमने ऐसी रीत,
देकर पाने की ललक, रखते सारे मीत ||4||
तजिये ऐसे प्रेम को, जो मांगे प्रतिदान,
त्याग भाव में जो बहे, ऐसा प्रेम महान ||5||
जप,तप,पूजा, पाठ का, तब तक नहीं प्रभाव,
जब तक निश्छल प्रेम का, मन में नहीं बहाव ||6||
''जय श्री राधे कृष्णा ''
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