गोपी गीत  1

गोपी गीत 1



गोपी गीत

जयति तेऽधिकं जन्मना व्रजः
श्रयत इन्दिरा शश्र्वदत्र हि।
दयति दृश्यतां दिक्षु तावका -
स्त्वयि धृतासवस्त्वां विचिन्वते॥1||

गोपिया कहती है प्यारे ! जब से तुम्हारा जन्म व्रज मे हुआ है व्रज की महिमा वैकुण्ठ लोक से भी बढ गयी है ।तभी तो सौन्दर्य एवं मृदुलता की देवी लक्ष्मी जी अपना निज स्थान वैकुण्ठ छोडकर यहाँ नित्य निरंतर निवास करने लगी है ,और इसकी सेवा करने लगी है ।परन्तु प्रियतम ! देखो तुम्हारी गोपियाँ जिन्होने तुम्हारे चरणो मे ही अपने प्राण समर्पण कर रखे है ।बन बन भटककर तुम्हे ढूंढ रही है ।

शरदुदाशये साधुजातसत्
सरसिजोदरश्रीमुषा दृशा।
सुरतनाथ तेऽशुल्कदासिका
वरद निन्घतो नेह कि वधः ।।2||

हमारे प्रेमपूर्ण हृदय के स्वामी !हम तुम्हारी बिना मोल की दासी है ।तुम शरदकालीन जलाशय मे सुन्दर से सुन्दर सरसिज की कर्णिका के सौन्दर्यको चुराने वाले नेत्रो से हमे घायल कर चुके हो ।हमारे मनोरथ पूर्ण करने वाले प्राण प्रियतम ! क्या नेत्रो से मारना बध नही है ? सिर्फ अस्त्रो से मारना ही बध है ?

जय श्री राधे कृष्ण
श्री कृष्णाय समर्पणम्

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