
गोपी गीत 4
प्रणतदेहिनां पापकर्शनं
तृणचरानुगं श्रीनिकेतनम्।
फणिफणार्पितं ते पदाम्बुजं
कृणु कुचेषु नः कृन्धि हृच्छयम्॥7||
गोपिया कहती है प्रभो तुम्हारे चरणकमल शरणागत प्राणियों के सारे पापों को नष्ट कर देते है ।वे समस्त सौन्दर्य ,माधुर्य की खान है और स्वयं लक्ष्मी जी उनकी सेवा करती रहती है ।तुम्ह उन्ही चरणो से हमारे बछडो के पीछे पीछे चलते हो और हमारे लिये उन्हे सांपो के फडों तक पर रखने मे तुमने संकोच नही किया ।हमारा हृदय तुम्हारी विरह व्यथा की आग मे जल रहा है तुम्हारे मिलन की आकांक्षा हमे सता रही है ।तुम अपने वे ही चरण हमारे वक्षस्थल पर रखकर हमारे हृदय की ज्वाला को शान्त कर दो ।
मधुरया गिरा वल्गुवाक्यया
बुधमनोज्ञया पुष्करेक्षण।
विधिकरीरिमा वीर मुह्यती-
रधरसीधुनाऽऽप्याययस्व नः॥8||
गोपिया कहती है हे कमलनयन ! तुम्हारी वाणी कितनी मधुर है !उसका एक एक पद अक्षर मधुरातिमधुर है ।बडे बडे विद्वान उसमे रम जाते है ।उस पर अपना सर्वस्य निछावर कर देते है ।तुम्हारी उसी वाणी का रसास्वादन करके तुम्हारी आज्ञाकारणी दासी गोपियाँ मोहित हो रही है ।दानवीर ! अब तुम अपना दिव्य अमृत से भी मधुर अधर रस पिलाकर हमे जीवन दान दो तृप्त कर दो ।।
जय श्री राधे कृष्ण
श्री कृष्णाय समर्पणम्
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