
चलसि यद् व्रजाच्चारयन् पशून्
नलिनसुन्दरं नाथ ते पदम्।
शिलतृणाक्ङुरैः सीदतीति नः
कलिलतां मनः कान्त गच्छति॥11 ||
गोपियाँ कहती है "हमारे प्यारे स्वामी ! तुम्हारे चरण कमल से सुकुमार और सुन्दर है ।जब तुम गौओ को चराने के लिये व्रज से निकलते हो तब यह सोच कर कि तुम्हारे वे युगलचरण कंकड तिनके और कुश कांटे गड जाने से कष्ट पाते होगे हमारा मन बेचैन हो जाता है ।हमे बडा दुख होता है ।
दिनपरिक्षये नीलकुन्तलै-
र्वनरुहाननं बिभ्रदावृतम्।
घनरजस्वलं दर्शयन् मुहु-
र्मनसि नः स्मरं वीर यच्छसि ॥12 ||
गोपिया कहती है प्रभो ! दिन ढलने पर जब तुम वन से घर लौटते हो ,तो हम देखती है कि तुम्हारे मुखकमल पर नीली नीली अलंके लटक रही है और गौओ के खुर से उड उड कर घनी धूल पडी हुई है ।हमारे वीर प्रियतम् ! तुम अपना वह सौन्दर्य हमे दिखा दिखा कर हमारे हृदय मे मिलन की आकांक्षा -प्रेम उत्पन्न करते हो ।।
जय श्री राधे कृष्ण
श्री कृष्णाय समर्पणम्
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