गोपी गीत 8

गोपी गीत 8



अटति यद् भवानह्वि काननं
त्रुटिर्युगायते त्वामपश्यताम्।
कुटिलकुनातलं श्रीमुखं च ते
जड उदीक्षतां पक्ष्मकृद् दृशाम्॥15||

गोपियाँ कहती है प्यारे ! दिन के समय जब तुम वन मे विहार करने के लिये चले जाते हो तब तुम्हे देखे बिना हमारे लिये एक एक छड युग के समानहो जाता है और जब तुम संन्ध्या के समय लौटते हो तब घुँघराली अलको से युक्त तुम्हारा परम सुन्दर मुखारविन्द हम देखती है उस समय पलकों का गिरना हमारे लिये भार हो जाता है और ऐसा जान पडता है इन पलको को बनाने वाला विधाता मूर्ख है ।।

पतिसुतान्वयभ्रातृबान्धवा-
नतिविलङ्घ्य तेऽन्त्युतागताः।
गतिविदस्तवोद्गीतमोहिताः
कितव योषितः कस्त्यजेन्निशि॥16||

गोपियाँ कहती है प्यारे श्यामसुन्दर ! हम अपने पति पुत्र ,भाई -बन्धु और कुल परिवार का त्यागकर ,उनकी इच्छा और आज्ञाओं का उल्लघन करके तुम्हारे पास आयी हैं ।हम तुम्हारी एक एक चाल जानती है संकेत समझती है और तुम्हारे मधुर गान की गति समझकर उसी से मोहित होकर यहाँ आयी है ।कपटी! इस प्रकार रात्रि के समय आयी हुई युवतियो को तुम्हारे सिवा और कौन छोड सकता है।।


जय श्री राधे कृष्ण
श्री कृष्णाय समर्पणम्

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