
रहसि संविदं हृच्छयोदयं
प्रहसिताननं प्रेमवीक्षणम्।
बृहदुरः श्रियो वीक्ष्य धाम ते
मुहरतिस्पृहा मुह्यते मनः॥17||
गोपियाँ कहती है प्यारे ! एकान्त में तुम मिलन की आकांक्षा ,प्रेम भाव को जगाने वाली बातें करते थे।ठिठोली करके हमे छेडते थे ।तुम प्रेम भरी चितवन से हमारी ओर देखकर मुसकरा देते थे और हम देखती थीं तुम्हारा वह बिशाल वक्षस्थल ,जिस पर लक्ष्मी जी नित्य निरन्तर निवास करती हैं ।तबसे अब तक निरन्तर हमारी लालसा बढती जा रही है और हमारा मन अधिकाधिक मुग्ध होता जा रहा है ।
व्रजवनौकसां व्यक्तिरङँ ते
वृजिनहन्त्र्यलं विश्वमंगलम्।
त्यज मनाक च नस्त्वत्स्पृहात्मनां
स्वजनहृद्रुजां यन्निषूदनम्॥18 ||
गोपियाँ कहती है प्यारे! तुम्हारी यह अभिव्यक्ति व्रज -वनवासियों के सम्पूर्ण दुख ताप को नष्ट करने वाली और विश्व का पूर्ण मंगल करने के लिये है ।हमारा हृदय तुम्हारे प्रति लालसा से भर रहा है ।कुछ थोडी से ऐसी औषधि दो जो तुम्हारे निजजनों के हृदय रोग को सर्वथा निर्मूल कर दे।
जय श्री राधे कृष्ण
श्री कृष्णाय समर्पणम्
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