
काँकरि मोरि मारी गागरी |
सखि सँग जाति रही दधि बेचन,
वृंदावन हौं नागरी ||1||
काँकरि लगत फूटि गइ गागरि,
तब मोहिं अति रिस लाग री ||2||
देख्यो घूमि नंदनंदन जब,
तब सिगरी रिस भाग री ||3||
सो छवि लखत रही तहँ ठाढ़ी,
उमग्यो उर अनुराग री ||4||
अब उर लाग ‘कृपालु’ आग री,
जात जरी गुन आगरी ||5||
जय श्री राधे कृष्ण
श्री कृष्णाय समर्पणम्
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