
आते हो तुम बार-बार प्रभु ! मेरे मन-मन्दिरके द्वार।
कहते-’खोलो द्वार, मुझे तुम ले लो अंदर करके प्यार|
मैं चुप रह जाता, न बोलता, नहीं खोलता हृदय-द्वार।
पुनः खटखटाकर दरवाजा करते बाहर मधुर पुकार ||1||
‘खोल जरा सा’ कहकर यों-’मैं,अभी काममें हूँ, सरकार।
‘फिर आना’-झटपट मैं घरके कर लेता हूँ बंद किंवार ||2||
फिर आते, फिर मैं लौटाता,चलता यही सदा व्यवहार।
पर करुणामय ! तुम न ऊबते,तिरस्कार सहते हर बार ||3||
दयासिन्धु ! मेरी यह दुर्मति हर लो, करो बड़ा उपकार।
नीच-अधम मैं अमृत छोड़, पीता हालाहल बारंबार||4||
अपने सहज दयालु विरदवश,करो नाथ ! मेरा उद्धार।
प्रबल मोहधारामें बहते नर-पशुको लो तुरंत उबार ||5||
जय श्री राधे कृष्ण
श्री कृष्णाय समर्पणम्
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