
प्रेम की भाषा है अनमोल
बिन अक्षर बिन भाषा के मूक रही है बोल l
प्रेम हो जैसा फल भी वैसा प्रेम का चलन ही है ऐसा
प्रेम तासीर बना लेती घृणा को भी अपना जैसा
प्रेम पताका फहरे चहुँदिश बजे विजय का ढोल ll1ll
प्रेम सब व्यक्त करें प्राणी प्रेम के बिन सन् निष्प्राणी
प्रेम झंकार उठे कण कण छिड़े जब दिल बीड़ा नाड़ी
ये आकर्षक बिंदु जगत का प्रेम ही सबकी तोल ll2ll
प्रेम से प्रकट हरि होई ज्ञानी हो या न होई
प्रेम के दो अक्षर समझे बिना पंडित ना हो कोई
प्रेम के बल पर ही सारी सृष्टि रही है डोल ll3ll
जय श्री राधे कृष्ण
श्री कृष्णाय समर्पणम्
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