भजन की लगन न लागी रे,जगत तज्यौ, पै भयो न
भजन की लगन न लागी रे,
जगत तज्यौ, पै भयो न मन अबहूँ अनुरागी रे |
तनकी सुविधा मन की दुविधा अजहुँ न त्यागी रे,
प्राननाथ की रति में यह मति अबहुँ न पागी रे॥1॥
स्वारथ की ही करत कलपना विरति न जागी रे,
परमारथ की प्रबल प्यास उर अबहुँ न लागी रे॥2॥
अपनो सुख अजहूँ मन चिन्तत, सुख को रागी रे,
पर - दुख देखि कबहुँ करुनाकी वृत्ति न जागी रे॥3॥
असन-वसन को मनन करत यह चित्त अभागी रे,
ऐसे मन में प्यास प्रीति की काकों लागी रे॥4॥
जो तू तन-सुख तजै जगै निस्चै विरहागी रे,
विरहानल बिनु कबहुँ न प्रभु की पद-रति जागी रे॥5॥
पै अब निज बल थक्यौ हीय सब आसा त्यागी रे,
तदपि स्याम-करुनासों हुइ है अवशि सुभागी रे॥6॥
जय श्री राधे कृष्ण
श्री कृष्णाय समर्पणम्
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