
निकसे खंभ बीचतें नरहरि हिरण्यकशिपुको उदर विदार्यो।।
दे शिरतिलक भक्त अपनेकों हस्त कमल शिर ऊपर धार्यो।।1।।
जलतें राख अग्नितें राख्यो गिरपरतेंले डार्यो।।
जयजयकार भयो भूऊपर सुरनर मुनिजन कोटि निहार्यो।।2।।
कमला हरिजूके निकट न आवे एसो रूप प्रभु कबहूं न धार्यो।।
प्रल्हादे चूंबत ओर चाटत भक्त हर्दय धरि क्रोध निवार्यो।।3।।
अनुरमार कियो निस्तारो धरणीको सब भार उतार्यो।।
श्रीभटके प्रभु दीयो अभयपद भक्तताप ततछिन निस्तार्यो।।4।।
जै श्री राधे कृष्ण
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श्री कृष्णायसमर्पणं
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